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यह है कि वे मिथ्यादृष्टि नीचे तीसरी पृथिवी तक दो राजु और ऊपर सोलहवें कल्प तक छह राजु इस प्रकार उन चौदह भागों में से आठ भागों में विहार व विक्रिया करते हैं। कुछ कम करने का कारण यह है कि तीसरी पृथिवी के नीचे के एक हजार योजन प्रमाण क्षेत्र में उनका निहार सम्भव नहीं है।'
सूत्र (१,४.३) में सासादनसम्यग्दृष्टियों का स्पर्शनक्षेत्र लोक का असंख्यातवा भाग कहा गया है। उनके इस क्षेत्रप्रमाण का उल्लेख इसके पूर्व क्षेत्रानुगम अनुयोगद्वार सूत्र (१,३,३) में भी किया जा चुका है। इससे पुनरुक्ति दोष का प्रसंग प्राप्त होता है, इस शंका को हृदयंगम कर इसके परिहारस्वरूप धवलाकार ने कहा है कि प्रस्तुत सूत्र में जो क्षेत्रानुयोगद्वार में प्ररूपित क्षेत्र की पुनः प्ररूपणा की गयी है वह मन्दबुद्धि शिष्यों को स्मरण कराने के लिए है। अथवा चौदह गुणस्थानों से सम्बद्ध अतीत, अनागत और वर्तमान तीनों काल से विशिष्ट क्षेत्र के विषय में पूछने पर शिष्य के सन्देह को दूर करने के लिए अतीत व अनागत इन दो कालों से विशिष्ट उस क्षेत्र की प्ररूपणा की जा रही है । तदनुसार स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान तथा वेदना, कषाय, वैक्रियिक व मारणान्तिक समुद्घात और उपपाद पदों से परिणत उक्त सासादनसम्यग्दष्टियों के द्वारा चार लोकों का असंख्यातवाँ भाग और मानुषक्षेत्र से असंख्यातगुणा क्षेत्र स्पर्श किया गया है। ___ आगे के सूत्र (१,४,४) में सासादनसम्यग्दृष्टियों का स्पर्शनक्षेत्र कुछ कम आठ बटे चौदह भाग अथवा बारह बटे चौदह भाग का भी निर्देश है। उसकी व्याख्या में धवला में स्पष्ट किया गया है कि यह सूत्र अतीत काल से विशिष्ट उनके स्पर्शनक्षेत्र का प्ररूपक है। आगे इस
को देशामर्शक कहकर पर्यायाथिक नय की अपेक्षा उसकी प्ररूपणा करते हुए यह स्पष्ट किया है कि स्वस्थानस्वस्थानगत उन सासादनसम्यग्दृष्टियों ने तीन लोकों के असंख्यातवें भाग, तिर्यग्लोक के संख्यातवें भाग और अढाई द्वीप से असंख्यातगुणे क्षेत्र का स्पर्श किया है।
अतीत काल से सम्बद्ध उन सासादनसम्यग्दृष्टियों के इस स्वस्थान क्षेत्र को स्पष्ट करते हुए धवलाकार ने प्रथमत: तिर्यंच सासादनसम्यग्दृष्टियों के क्षेत्र की प्ररूपणा में कहा है कि त्रसजीव त्रसनाली के भीतर ही होते हैं, इस प्रकार राजुप्रतर के भीतर सर्वत्र सासादनसम्यग्दृष्टियों की सम्भावना है। इस क्षेत्र को तिर्यग्लोक के प्रमाण से करने पर वह उसका संख्यातवाँ भाग होकर संख्यात अंगुल बाहल्यरूप जगप्रतर होता है।
तत्पश्चात् ज्योतिषी सासादनसम्यग्दृष्टियों के स्वस्थानस्वस्थान क्षेत्र के निकालने के लिए धवलाकार ने जम्बूद्वीप व लवणसमुद्र आदि असंख्यात द्वीप-समुद्रों में अवस्थित चन्द्र-सूर्यादि समस्त ज्योतिषी देवों की संख्या को गणित-प्रक्रिया के आधार से निकाला है। उस प्रसंग में धवलाकार ने यह अभिमत व्यक्त किया है कि स्वयम्भूरमण समुद्र के आगे भी राजु के अर्धच्छेद हैं। इसका आधार उन्होंने ज्योतिषियों की संख्या के लाने में कारणभूत दो सौ छप्पन अंगुल के वर्गरूप भागहार के प्ररूपक सूत्र' को बतलाया है।
इस पर यह शंका की गयी कि "जितनी द्वीप-समुद्रों की संख्या है तथा जितने जम्बूद्वीप के अर्धच्छेद हैं, एक अधिक उतने ही राजु के अर्धच्छेद हैं" ऐसा जो परिकर्म में कहा गया है १. धवला पु० ४, पृ० १४८ २. खेत्तेण पदरस्स बेछप्पण्णंगुलसयवग्गपडिभागेण ।-सूत्र १,२,५५ (पु० ३)
षट्खण्डागम पर टोकाएँ / ४०६
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