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स्व-पर कल्याण के इच्छुक हैं उन्हें किसी प्रकार की प्रतिष्ठा या प्रलोभन में न पड़कर एक मात्र समयसार के अध्ययन से आत्मकल्याण होने वाला है, इस कदाग्रह को छोड़ कर आ० कन्दकन्द के पंचास्तिकाय व प्रवचनसार आदि अन्य ग्रन्थों के भी अध्ययन की प्रेरणा करना चाहिए । इसके अतिरिक्त तत्त्वार्थसूत्र, मूलाचार, इष्टोपदेश, समाधिशतक और पुरुषार्थसिद्धयुपाय आदि ग्रन्थों का स्वाध्याय करना भी हितकर होगा। समयसार उच्चकोटि का अध्यात्म ग्रन्थ है, इसका कोई भी बुद्धिमान् विषेध नहीं कर सकता है। पर उसमें किस दृष्टि से तत्त्व का विवेचन किया गया है, इसे समझ लेना आवश्यक है, अन्यथा दिग्भ्रम हो सकता है । इसके लिए यथायोग्य अन्य ग्रन्थों का स्वाध्याय भी अपेक्षित है । जीव का अन्तिम लक्ष्य कर्म बन्धन से मुक्ति पाना ही होना चाहिए। बाह्य व्रत-संयमादि का विधान उसी की पूर्ति के लिए किया गया है।
__अन्तिम निवेदन जिस षट्खण्डागम से सम्बद्ध यह परिशीलन लिखा गया है उसका सम्पादन-प्रकाशन कार्य स्व. डॉ० हीरालाल जी के तत्त्वावधान में सन् १९३८ में प्रारम्भ होकर १९५८ तक लगभग बीस वर्ष चला। उसके अन्तिम अर्थात छठे खण्ड महाबन्ध को छोड़ पूर्व के पाँच खण्ड धवला टीका और हिन्दी अनुवाद के साथ 'सेठ शिताबराय लक्ष्मीचन्द जैन साहित्योद्धारक फण्ड कार्यालय' से प्रकाशित हुए हैं। उनमें प्रारम्भ के तीन भाग पं० फूलचन्द्र जी सिद्धान्तशास्त्री और पं० हीरालाल जी सिद्धान्तशास्त्री के सहयोग से सम्पादित होकर प्रकाशित हुए हैं। आगे के चौथा और पांचवाँ ये दो भाग पं० हीरालाल जी शास्त्री के सहयोग से सम्पादित हए हैं । छठा भाग चल ही रहा था कि पं० हीरालाल जी का सहयोग नहीं रहा । तब डॉ० हीरालाल जी ने उसके आगे के कार्य को चालू रखने के लिए मुझसे अनुरोध किया। उस समय की परिस्थिति को देखकर मैंने उसके सम्बन्ध में अपेक्षित कुछ विशेष ऊहापोह न करते हए उनके अनुरोध को स्वीकार कर लिया। यह स्मरणीय है कि उस समय मैं अमरावती में रहता हुआ धवला कार्यालय में बैठकर डॉ. हीरालाल जी के तत्त्वावधान में जैन संस्कृतिसंरक्षक संघ, सोलापुर की ओर से तिलोयपण्णत्ती का कार्य कर रहा था। इस प्रकार डॉ० सा० के अनुरोध को स्वीकार कर मैं षट्खण्डागम के आगे के कार्य को सम्पन्न कराने में लग गया । तदनुसार मेरा सम्बन्ध षटखण्डागम के अधूरे छठे भाग से जुड़कर उसके अन्तिम सोलहवें भाग तक बना रहा। बीच में यथासम्भव पं० फूलचन्द जी सिद्धान्तशास्त्री का भी सहयोग उपलब्ध होता रहा है। ___ अन्तिम भाग प्रकाशित करते हुए डॉ० हीरालाल जी की तब यह इच्छा रही आयी कि वर्तमान ग्रन्थ की ताडपत्रीय प्रतियों के जो फोटो उपलभ्य हैं उनसे सम्पूर्ण ग्रन्थ का मिलान कर पाठभेदों को अंकित कर दिया जाय । पूर्व के प्रत्येक भाग की प्रस्तावना में जो कुछ विचार किया गया है तथा परिशिष्टों में जो सामग्री दी गई है उस सबको अपेक्षित संशोधन के साथ संकलित कर इस भाग में दे दिया जाय । दिगम्बर, श्वेताम्बर एवं अन्य बौद्धादि सम्प्रदायगत कर्म से सम्बद्ध साहित्य के साथ तुलनात्मक दृष्टि से विचार कर उसे भी इस भाग में समाविष्ट कर दिया जाय । पर उनका स्वास्थ्य उस समय गिर रहा था व इस प्रकार के कठोर परिश्रम योग्य वह नहीं था। इससे उन्होंने उस अन्तिम भाग को अधिक समय तक रोक रखना उचित
३६ / षटखण्डागम-परिशीलन
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