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न समझ उसे प्रकाशित करा दिया। फिर भी उनकी वह सदच्छिा बनी रही। तब उन्होंने यह भी विचार किया कि उपर्युक्त अपेक्षित सारी सामग्री को यथावकाश तैयार कर उसे एक स्वतन्त्र जिल्द में समाविष्ट करके प्रकाशित करा दिया जाय । अपनी इस मनोगत भावना को उन्होंने अन्तिम भाग के 'सम्पादकीय' में व्यक्त भी किया है।
किन्तु उनके स्वास्थ्य में यथेष्ठ सुधार नहीं हुआ। इसके अतिरिक्त जिन अन्य कार्यों का उत्तरदायित्व उनके ऊपर रहा उन्हें भी पूरा करना आवश्यक था। ऐसी परिस्थिति में वे अपनी उस मनोगत भावना को चरितार्थ नहीं कर सके। अन्ततः सन् १९७३ में उनका दुखद स्वर्गवास हो गया।
इधर मैं भी हस्तगत कुछ अन्य कार्यों में, विशेषकर 'जैन लक्षणावली' के कार्य में, व्यस्त था। इच्छा रखते हुए भी तब मैं उस कार्य को हाथ में नहीं ले सका । पश्चात् 'जन लक्षणावली के कार्य से अवकाश मिलने पर, मैंने सोचा कि अपनी योग्यता के अनुसार यदि मैं स्व० डॉ० सा० की उस सदिच्छा को कुछ अंश में पूर्ण कर सकता हूँ तो क्यों न उसके लिए कुछ प्रयत्न किया जाय । तदनुसार मैंने उसके लिए एक योजना बनाई व स्वास्थ्य की जितनी कुछ अनुकूलता रही, उस कार्य को प्रारम्भ कर दिया। इस प्रकार यथासम्भव उस कार्य को करते हुए उसे इस रूप में सम्पन्न किया है।
स्व० डॉ० सा० की जो एक यह इच्छा रही है कि ग्रन्थ की ताड़पत्रीय प्रतियों से मिलान कर पाठभेदों को अंकित कर दिया जाय, उस सम्बन्ध में यह स्पष्ट कर देना चाहता है कि 'जैन संस्कृति संरक्षक संघ, सोलापुर' में रहते हुए मैंने उपलब्ध एक प्रति के फोटो पर से, स्व० चन्द्रराजय्या शास्त्री के साथ, मिलान करके लगभग प्रकाशित दस भागों के पाठ-भेदों को संकलित कर लिया था, जिनका उपयोग अलभ्य भागों को द्वितीय आवृत्ति में हो रहा है। चन्द्रराजय्या शास्त्री पुरानी कानडी लिपि से अच्छे परिचित थे । उनको ग्रन्थ के वाचन में कछ भी कठिनाई नहीं हुई। ___ख्यातिप्राप्त विद्वान् स्व० डॉ० हीरालाल जी पाश्चात्य प्रणाली आदि से अधिक परिचित रहे हैं। इससे वे उसे जिस रूप में प्रस्तुत करना चाहते थे उस रूप में उसे प्रस्तुत करना मेरे लिए शक्य नहीं रहा । कारण स्पष्ट है कि मेरी उस प्रकार की योग्यता नहीं रही है। फिर भी उस ओर मेरी रुचि और लगन रही है तथा ग्रन्थ से भी कुछ परिचित था। इससे मेरा उसके लिए कुछ प्रयत्न रहा है। इस प्रकार डॉ० सा० के द्वारा निर्धारित विषयों में से जिन्हें में प्रस्तुत कर सकता था उन्हें इसमें समाविष्ट किया है। इस दुष्कर कार्य में मैं कहाँ तक सफल हो सका हूँ तथा वह कुछ उपयोगी भी हो सका है या नहीं, इसका निर्णय तो विज्ञ पाठक ही कर सकेंगे। मेरी तो ग्रन्थ से कुछ संलग्नता रहने तथा स्व० डॉ० सा० की उपर्युक्त सद्भावना की ओर ध्यान बना रहने से मैंने यथासम्भव उसे सम्पन्न करने का प्रयत्न किया है। मेरा तो सहृदय पाठकों से यही अनुरोध है कि अपने उत्तरोत्तर गिरते हुए स्वास्थ्य
और स्मृतिभ्रंश की स्थिति में मुझसे इसमें अनेक भूलें हो सकती हैं तथा उसके लिए अपेक्षित कितने ही ग्रन्थ मुझे यहां सुलभ नहीं हुए हैं, इससे विद्वान् पाठक उन्हें सुधार लेने का अनुग्रह करें।
आभार
प्रस्तुत 'षट्खण्डागम-परिशीलन' को प्रारम्भ करते हुए मैंने जो उसकी योजना बनायी
प्रस्तावना / ३७
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