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________________ भगवान् पार्श्व प्रभु के निर्वाण के पश्चात् श्रमणों में भी परिग्रह के प्रति मोह दिखने लगा था। इससे आ० कुन्दकन्द ने वस्त्रादि बाह्य परिग्रह के परित्याग पर अत्यधिक जोर दिया है। ऐसा उन्होंने किसी प्रकार के राग-द्वेष के वशीभूत होकर अथवा किसो पक्ष या व्यामोह में पढ़कर नहीं किया, बल्कि उस बाह्य परिग्रह को मोक्षमार्ग में बाधक जानकर ही उन्होंने उसका प्रबल विरोध किया है। ____'दर्शनप्राभूत' में उन्होंने यह स्पष्ट कहा है कि सम्यक्त्व से ज्ञान (सम्यग्ज्ञान), ज्ञान से पदार्थों की उपलब्धि और उससे सेव्य-असेव्य का परिज्ञान होता है तथा जो सेव्य-असेव्य को जानता है वह दुःशीलता-- असेव्य के सेवनरूप दुराचरण को-छोड़कर व्रत-सयमादि के संरक्षणरूप शील से विभूषित हो जाता है, जिस के फल से उसे अभ्युदय-+परलोक में स्वर्गा सुख-और तत्पश्चात् निर्वाण (शाश्वतिक मोक्षसुख) प्राप्त हो जाता है।' आगे उन्होंने यहीं पर यह भी स्पष्ट किया है कि जो छह द्रव्यों, नौ पदार्थों, पांच अस्तिकायों और सात तत्त्वों के स्वरूप का श्रद्धान करता है उसे सम्यग्दृष्टि जानना चाहिए। जिनेन्द्रदेव ने जीवादि के श्रद्धान को व्यवहार सम्यक्त्व और आत्मश्रद्धान को निश्चय सम्यक्त्व कहा है। इस प्रकार जिनोपदिष्ट सम्यग्दर्शनरूप रत्नत्रय को जो भाव से धारण करता है वह मोक्ष के सोपानस्वरूप उस रत्नत्रय में सारभूत सम्यक्त्वरूप प्रथम सोपान पर आरूढ़ हो जाता है। जो शक्य है उसका आचरण करना चाहिए, पर जो शक्य नहीं है उसका श्रद्धान करना चाहिए। इस प्रकार से श्रद्धान करने वाले जीव के केवली जिनदेव ने सम्यक्त्व कहा है। चरित्रप्राभूत में उन्होंने सागार अथवा गृहस्थ के दर्शनिक, प्रतिक आदि ग्यारह स्थानों (प्रतिमाओं) का निर्देश करते हुए बारह भेदस्वरूप संयमाचरण का-श्रावक के व्रतों का निरूपण किया है। द्वादशानुप्रेक्षा में भी उन्होंने धर्मानुप्रेक्षा के प्रसंग में सागारधर्म और अनगारधर्म दोनों का प्रतिपादन किया है। इस सारी स्थिति को देखते हुए क्या यह कल्पना की जा सकती है कि आ. कुन्दकुन्द व्यवहार मार्ग के विरोधी रहे हैं ? कदापि नहीं। उन्होंने समयसार में जो व्यवहार मार्ग का विरोध किया है वहाँ परिग्रह में उत्तरोत्तर बढ़ती हुई प्राणियों की आसक्ति को देखकर ही वैसा विवेचन किया है, अन्यथा वे अपने अन्य ग्रन्थों में व्यवहार सम्यक्त्व-चारित्र आदि की चर्चा नहीं कर सकते थे। वे अरहन्त आदि के स्वयं भी कितने भक्त रहे हैं, यह भी उपयुक्त विवेचन से स्पष्ट है। उपसंहार उपर्युक्त विवेचन वस्तुस्थिति का परिचायक है। उसे समझकर जो महानुभाव यथार्थ में १. दर्शनप्राभूत १५-१६. २. दर्शनप्राभृत १६-२२ ३. चारित्रप्राभृत २१-३७ ४. द्वादशानुप्रेक्षा ६८-८२ प्रस्तावना | ३५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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