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________________ कम अर्धपुद्गल परिवर्तनकाल तक ही संसार में परिभ्रमण करता है, इसके बाद वह सम्यक्त्व ग्रहणकर नियम से मुक्ति को प्राप्त कर लेता है। इस ओघप्ररूपणा में आगे इसी प्रकार से सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्याष्टि, असंयत सम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्त-अप्रमत्तसंयत, चार उपशमक, चार क्षपक और सयोगिकेवली इनके काल की प्ररूपणा की गई है (५-३२)। ___ ओघप्ररूपणा के पश्चात् आदेशप्ररूपणा में कम से गति-इन्द्रिय आदि चौदह मार्गणाओं में जहाँ जितने गुणस्थान सम्भव हैं उनमें वर्तमान जीवों के काल की प्ररूपणा उसी पद्धति से की गई है (३३-३४२)। क्षेत्रानुगम, स्पर्शनानुगम और कालानुगम ये तीन अनुयोगद्वार धवला टीका के साथ चौथी जिल्द में प्रकाशित हुए हैं । ६. अन्तरानुगम अन्तरानु गम में ओघ और आदेश की अपेक्षा क्रम से अन्तर की प्ररूपणा की गई है । अन्तर, उच्छेद, विरह और परिणामान्तर की प्राप्ति ये समानार्थक शब्द हैं। अभिप्राय यह है कि किसी गुणस्थान से दूसरे गुणस्थान में जाकर पुनः उस गुणस्थान की प्राप्ति में जितना काल लगता है उसका नाम अन्तर है। __ ओघ की अपेक्षा उस अन्तर की प्ररूपणा करते हुए सर्वप्रथम मिथ्यादष्टियों का अन्तर कितने काल होता है इसके स्पष्टीकरण में कहा गया है कि नाना जीवों की अपेक्षा उनका कभी अन्तर नहीं होता--वे सदा ही विद्यमान रहते हैं। ___ एक जीव की अपेक्षा उनका अन्तर सम्भव है । वह जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से कुछ कम दो छयासठ (६६४२-१३२) सागरोपम प्रमाण होता है (२-४)।' धवला में इसे इस प्रकार से स्पष्ट किया गया है-कोई एक तिर्यंच या मनुष्य चौदह सागरोपम प्रमाण आयु स्थिति वाले लान्तव कापिष्ट कल्पवासी देवों में उत्पन्न हुआ। वहाँ उसने एक सागरोपम विताकर दूसरे सागरोपम के प्रथम समय में सम्यक्त्व को ग्रहण कर लिया। इस प्रकार से वह वहाँ सम्यक्त्व के साथ तेरह सागरोपम काल तक रहकर वहाँ से युत हुआ और मनुष्य हो गया। वहाँ वह संयम अथवा संयमासंयम का परिपालन कर मनुष्य आयु से कम बाईस सागरोपम स्थिति वाले आरण-अच्युत कल्प के देवों में उत्पन्न हुआ । वहाँ से च्युत होकर वह पुनः मनुष्य हुआ। वहाँ संयम का परिपालन करके वह मनुष्यायु से कम इकतीस सागरोपम की स्थितिवाले देवों में उत्पन्न हुआ। इस प्रकार से वह अन्तर्मुहूर्त से कम छ्यासठ (१३ + २२ + ३१) सागरोपम के अन्तिम समय में परिणाम के वश सम्यग्मिथ्यात्व को प्राप्त हुआ और उसके साथ अन्तर्मुहूर्त रहकर पुनः सम्यक्त्व को प्राप्त हो गया। तत्पश्चात् वहाँ से च्युत होकर वह मनुष्य हो गया। वहाँ संयम अथवा संयमासंयम का परिपालन करके वह मनुष्यायु से कम बीस सागरोपम आयुवाले देवों में उत्पन्न हुआ। और तत्पश्चात् वह मनुष्यायु से कम क्रमशः बाईस और चौबीस सागरोपम की स्थितिवाले देवों में उत्पन्न हुआ। इस प्रकार अन्तर्मुहूर्त कम दो छ्यासठ (१३+२२+३१ = ६६; २०+-२२ १. इस सबका स्पष्टीकरण आगे 'धवलागत-विषय-परिचय' में किया जाने वाला है। मूलग्रन्थगत विषय का परिचय | ५३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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