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________________ +२४ = ६६) सागरोपम के अन्तिम समय में मिथ्यात्व को प्राप्त हो गया। इस प्रकार से मिथ्यात्व का वह उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त कम दो छ्यासठ सागरोपम उपलब्ध हो जाता है । यह अव्युत्पन्न जनों के अवबोधनार्थ दिशावबोध कराया गया है । वस्तुतः उस अन्तर की पूर्ति जिस किसी भी प्रकार से कराई जा सकती है। - इसी प्रकार से आगे सासादनसम्यग्दष्टि आदि शेष गुणस्थानवी जीवों के अन्तर की प्ररूपणा नाना जीवों व एक जीव जी अपेक्षा की गई है (५-२०)। इस प्रकार ओघप्ररूपणा को समाप्त कर आगे आदेश की अपेक्षा उस अन्तर की प्ररूपणा करते हुए क्रम से गति-इन्द्रिय आदि चौदह मार्गणाओं में यथासम्भव गुणस्थानों के आश्रय से उस अन्तर की प्ररूपणा उसी पद्धति से एक और नाना जीवों की अपेक्षा की गई है (२१३६७) । इस प्रकार यह अनुयोगद्वार ३६७ सूत्रों में समाप्त हुआ है। ७. भावानुगम ___भाव से यहाँ जीवपरिणाम की विवक्षा रही है। वह पाँच प्रकार का है । औदयिक, औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक और पारिणामिक । प्रकृत में इन जीवभावों की प्ररूपणा यहाँ पूर्व पद्धति के अनुसार प्रथमतः ओघ को अपेक्षा और तत्पश्चात् आदेश की अपेक्षा की गई है । यहाँ सब सूत्र ६३ हैं। ओघप्ररूपणा में सर्वप्रथम 'मिथ्यादृष्टि' यह कौन-सा भाव है, इसे स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि यह औदयिक भाव है। कारण यह है कि वह तत्त्वार्थ के अश्रद्धानरूप मिथ्यात्व परिणाम मिथ्यात्व कर्म के उदय से उत्पन्न होता है (२)। __ आगे क्रमप्राप्त दूसरे ‘सासादन' परिणाम को पारिणामिक कहा गया है। जो भाव कर्मों के उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशम के बिना अन्य कारणों से उत्पन्न हुआ करता है उसे पारिणामिक भाव कहा जाता है। प्रकृत सासादन परिणाम चूंकि दर्शनमोहनीय के उदय, उपशम और क्षय की अपेक्षा न करके अन्य कारणों से उत्पन्न होता है, इसीलिए उसे पारिणामिक भाव कहा गया है । यद्यपि वह सासादन भाव अन्यतर अनन्तानुबन्धो के उदय से होता है, इसलिए उसे इस अपेक्षा से औदयिक कहा जा सकता था; किन्तु इस भाव प्ररूपणा के प्रसंग में प्रथम चार गुणस्थानों में दर्शनमोहनीय के उदयादि से उत्पन्न होने वाले भावों की ही विवक्षा रही है, अन्य कारणों से उत्पन्न होने वाले भावों की वहाँ विवक्षा नहीं रही। यही कारण है जो सासादन परिणाम को सूत्र में पारिणामिक कहा गया है (३)। इसी प्रकार से प्ररूपणा करते हुए आगे सम्यग्मिथ्यादृष्टि को क्षायोपशमिक भाव कहा गया है । असंयतसम्यग्दृष्टि भाव औपशमिक भी है, क्षायिक भी है और क्षायोपशमिक भी है। विशेषता यह है कि असंयतसम्यग्दृष्टि का असंयतत्व भाव औदयिक है, क्योंकि वह संयमघाती कर्मों के उदय से उत्पन्न होता है । संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत ये तीन भाव क्षायोपशमिक हैं। कारण यह कि ये तीनों भाव चारित्रमोहनीय के क्षयोपशम से उ हैं । यह कथन चारित्रमोहनीय की प्रधानता से किया गया है, यहाँ दर्शनमोहनीय की विवक्षा नहीं रही है। आगे चार उपशामक भावों को औपशमिक तथा चार क्षपक, सयोगिकेवली और अयोगिकेवली इन भावों को क्षायिक भाव कहा गया है (४-६)। इस प्रकार ओघप्ररूपणा को समाप्त कर आदेश की अपेक्षा भावों की प्ररूपणा करते हुए ५४ / षटखण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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