SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 109
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ क्रम से गति-इन्द्रियादि चौदह मार्ग गाओं में जो-जो गुणस्थान सम्भव हैं उनके आश्रय से प्रकृत भावप्ररूपणा की गई है (१०-६३)। ८. अल्पबहुत्वानुगम जीवस्थान के उपर्युक्त आठ अनुयोगद्वारों में यह अन्तिम है । इसकी सूत्रसंख्या ३८२ है । अल्पबहुत्व का अर्थ हीनाधिकता है । विवक्षित गुणस्थानवर्ती जीव अन्य गुणस्थानवी जीवों से अल्प हैं या अधिक हैं, इत्यादि का विचार इस अनयोगद्वार में किया गया है। पूर्व पद्धति के अनुसार उस अल्प बहुत्व की प्ररूपणा भी प्रथमतः ओघ की अपेक्षा और तत्पश्चात् आदेश की अपेक्षा की गई है । जैसे-- अपूर्व करण, अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्मसाम्पराय इन तीन गुणस्थानवर्ती उपशामक प्रवेश की अपेक्षा परस्पर समान तथा अन्य गुणस्थानवी जीवों की अपेक्षा अल्प हैं। उपशान्तकषायवीतराग-द्गस्थ भी उतने ही हैं । क्षपक उनसे संख्यातगुणे (दुगुने) हैं । क्षीणकषाय-वीतरागछद्मस्थ पूर्वोक्त क्षपकों के समान उतने ही हैं। सयोगिकेवली और अयोगिकेवली दोनों प्रवेश की अपेक्षा परस्पर में समान व उतने ही हैं। किन्तु सयोगिकेवली संचय की अपेक्षा उनसे संख्यातगणे हैं। इन सयोगिकेवलियों से अक्षपक व अनपशामक अप्रमत्तसंयत संख्यातगुणे, उन । प्रमत्तसंयत संख्यातगुणे, उनसे संयतासंयत असंख्यातगुणे, उनसे सासादनसम्यग्दृष्टि असंख्यातगणे, उनसे सम्यग्मिथ्यादृष्टि संख्यातगुणे, उनसे असंयतसम्यग्दृष्टि असंख्यातगुणे और उनसे मिथ्या दृष्टि अनन्तगुणे हैं (२-१४) । __आगे यहाँ असंयतसम्यग्दृष्टि व संयतासंयत आदि उक्त गणस्थानों में पृथक्-पृथक् उपशमसम्यग्दृष्टि, क्षायिक सम्यग्दृष्टि और वेदकसम्यग्दृष्टि इन तीनों में भी परस्पर अल्पबहुत्व को प्रस्ट किया गया है (१५-२६) । जैसे____ असंयतसम्यग्दृष्टि स्थान में उपशमसम्यग्दृष्टि सबसे कम हैं, उनसे क्षायिकसम्यग्दृष्टि असंख्यातगुणे हैं, उनसे वेदकसम्यग्दृष्टि असंख्यातगुणे हैं; इत्यादि । इस प्रकार ओघप्ररूपणा को समाप्त कर तत्पश्चात् आदेश प्ररूपणा में गति-इन्द्रिय आदि चौदह मार्गणाओं में जहाँ जो गुणस्थान सम्भव है उनमें वर्तमान जीवों के अल्प-बहुत्व को प्रकट किया गया है (२७-३८०)। अन्तरानुगम, भावानुगम और अल्पबहुत्वानुगम ये तीन अनुयोगद्वार षटखण्डागम की १६ जिल्दों में से ५वीं जिल्द में प्रकाशित हुए हैं। जीवस्थान-चूलिका जीवस्थान खण्ड के अन्तर्गत उपर्युक्त सत्प्ररूपणादि आठ अनुयोगद्वारों के समाप्त हो जाने पर आगे का जो गति-आगति पर्यन्त ग्रन्थ भाग है धवलाकार ने उसे जीवस्थान की चूलिका कहा है ।' धवलाकार के अनुसार उक्त आठ अनुयोद्वारों के विषम स्थलों का विवरण देना, १. तिहुवण सिरसेहरए भवभयगम्भादु णिग्गदे पणउं । सिद्धे जीवट्ठाणस्समलिणगुणचूलियं वोच्छं ।।-धवला पु० ६, पृ १ मूलगतग्रन्थ विषय का परिचय / ५५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy