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इस चूलिका का प्रयोजन रहा है।'
इसमें ये नौ चूलिकायें हैं.--१. प्रकृतिसमुत्कीर्तन, २. स्थानसमुत्कीर्तन, ३. प्रथम महादण्डक, ४. द्वितीय महादण्डक, ५. तृतीय महादण्डक, ६. उत्कृष्ट स्थिति, ७. जघन्य स्थिति, ८. सम्यक्त्वोत्पत्ति, और ६. गति-आगति । यहाँ उनका यथाक्रम से संक्षेप में परिचय कराया जाता है
सर्वप्रथम यहाँ ग्रन्थ के प्रारम्भ में जो प्रथम सूत्र प्राप्त हुआ है उसमें ये प्रश्न उठाये गये हैं-प्रथम सम्यक्त्व के अभिमुख हुआ जीव कितनी व किन प्रकृतियों को बांधता है, कितने काल की स्थितिवाले कर्मों के आश्रय से सम्यक्त्व को प्राप्त करता है, अथवा नहीं प्राप्त करता है, कितने काल के द्वारा मिथ्यात्व के कितने भागों को करता है, उपशामना अथवा क्षपणा किन क्षेत्रों में व किसके समीप में, कितने दर्शनमोहनीय के क्षय के करनेवाले व सम्पूर्ण चारित्र को प्राप्त करनेवाले के होती है।
ये प्रश्न उन नौ चूलिकाओं की भूमिका स्वरूप हैं, जिनकी कि प्ररूपणा क्रम से आगे की जानेवाली है, इन्हीं के स्पष्टीकरण में वे नौ चूलिकायें रची गई हैं। इनके अन्तर्गत विषय का परिचय यहाँ सूत्रानसार संक्षेप में कराया जाता है। उसका विशेष परिचय आगे धवला के आधार से कराया जाने वाला है।
१. प्रकृतिसमुत्कीर्तन--यहाँ प्रथमतः ज्ञानावरणीयादि आठ मूल कर्मप्रकृतियों का और तत्पश्चात् पृथक्-पृथक् उनकी उत्तर प्रकृतियों का निर्देश किया गया है। यहाँ सब मूत्र ४६ हैं।
२. स्थानसमत्कीर्तन--प्रथम चूलिका में जिन कर्म-प्रकृतियों का उल्लेख किया गया है वे एक साथ बँधती हैं या क्रम से बँधती हैं, इसे इस दूसरी चूलिका में स्पष्ट किया गया है। जिस संख्या अथवा अवस्था विशेष में प्रकृतियाँ रहती हैं उसका नाम स्थान है। वह मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत और संयतस्वरूप है (१-३) । संयत शब्द से यहाँ प्रमत्तसंयत आदि सयोगिकेवली पर्यन्त आठ गुणस्थान अभिप्रेत हैं । अयोगिकेवली गुणस्थान कर्मबन्ध से रहित है, अतः उसका ग्रहण नहीं किया गया है। इन स्थानों की प्ररूपणा यहां क्रम से इस प्रकार की गई है
ज्ञानावरण की आभिनिबोधिक आदि पाँच प्रकृतियाँ हैं । ये पाँचों साथ-साथ ही बंधती हैं। इस प्रकार इन पाँचों को बाँधनेवाले जीव का पांच संख्यारूप एक ही अवस्था विशेष में अवस्थान है। वह मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत और संयत के होता है। 'संयत' से यहाँ सूक्ष्मसाम्पराय पर्यन्त संयतों को ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि आगे के उपशान्तकषायादि संयतों से उनका बन्धन सम्भव नहीं
आगे दर्शनावरणीय के प्रसंग में कहा गया है कि दर्शनावरणीय कर्म के नौ, छह और चार के तीन स्थान हैं । उनमें निद्रानिद्रा आदि नौ ही दर्शनावरणीय प्रकृतियों के बाँधनेवाले जीव का सम्यक्त्व के अभाव रूप एक अवस्था विशेष में अवस्थान है । वह मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि के होता है । कारण यह कि आगे नौ की संख्या में उनका बन्ध सम्भव नहीं
१. सम्मत्तेसु अट्ठसु अणियोगद्दारेसु चूलिया किमट्ठमागदा ? पुव्युत्ताणमट्टण्णमणिओगद्दाराण
विसमपएसविवरण?मागदा ।-धवला पु० ६, पृ० २ ५६ / षट्खण्डागम-परिशीलन
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