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है। उन नौ प्रकृतियों में निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला और स्त्यानगृद्धि इन तीन को छोड़कर शेष छह का दूसरा स्थान है, जो सम्यग्मिथ्यादृष्टि से लेकर अपूर्वकरण के सात भागों में से प्रथम भाग तक अवस्थित संयतों के ही सम्भव है, आगे छह की संख्या में उनका बन्ध सम्भव नहीं रहता । चक्षुदर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण और केवलदर्शनावरण इन चार दर्शनावरण प्रकृतियों का तीसरा स्थान है जो अपूर्वकरण के दूसरे भाग से लेकर सूक्ष्मसाम्परायिक संयत तक सम्भव है। इसके आगे उस दर्शनावरणीय का बन्ध नहीं होता (७-१६)।
इसी पद्धति से आगे क्रमश: वेदनीय आदि शेष कर्मों के भी यथासम्भव स्थानों की प्ररूपणा की गई है (१७-११७)।।
इस प्रकार यह दूसरी स्थानसमुत्कीर्तन चूलिका ११७ सूत्रों में समाप्त हुई है।
३. प्रथममहादण्डक-इस तीसरी चूलिका में दो ही सूत्र हैं । इनमें से प्रथम सूत्र में 'अब प्रथम सम्यक्त्व के अभिमुख हुआ जीव जिन प्रकृतियों को नहीं बाँधता है उनका निरूपण करते हैं' ऐसी प्रतिज्ञा की गई है। दूसरे सूत्र में कृत प्रतिज्ञा के अनुसार उन प्रकृतियों का उल्लेख कर दिया गया है जिन्हें प्रथम सम्यक्त्व के अभिमुख हुआ संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच और मनुष्य बांधता है।
इस सूत्र के मध्यगत 'आउगं च ण बंदि' इस वचन द्वारा आयू कर्म के बन्ध का निषेध किया गया है । साथ ही उसके अन्तर्गत 'च' शब्द से उन अन्य प्रकृतियों की भी सूचना की गई है जिन्हें वह आयु के साथ नहीं बाँधता है। उन प्रकृतियों का निर्देश यद्यपि सूत्र में नहीं किया गया है, फिर भी उनका उल्लेख धवला में कर दिया गया है ।
४. द्वितीय महादण्डक-इस चौथी चूलिका में भी २ ही सूत्र हैं । यहाँ पहले सूत्र में दूसरे दण्डक के करने की प्रतिज्ञा की गई है और तदनुसार अगले सूत्र में उन प्रकृतियों का उल्लेख कर दिया गया है जिन्हें प्रथम सम्यक्त्व के अभिमुख हआ देव व सातवीं पृथिवी के नारकी को छोड़ कर अन्य नारकी बाँधता है। पूर्व के समान यहाँ भी 'आउगं च ण बंधदि' इस सूत्रांश के द्वारा आयु के बाँधने का निषेध किया गया है। साथ ही 'च' शब्द से सूचित उन अन्य प्रकृतियों के बन्ध का भी निषेध किया गया है जिन्हें वह नहीं बाँधता है। सूत्र में अनिदिष्ट उन न बँधने वाली अन्य प्रकृतियों का उल्लेख धवला में कर दिया गया है।
५. तृतीय महादण्डक-इस पाँचवीं चूलिका में भी २ ही सूत्र हैं। उनमें प्रथम सूत्र के द्वारा तीसरे महादण्डक के करने की प्रतिज्ञा करते हुए अगले सूत्र में उन प्रकृतियों का नाम निर्देश किया गया है जिन्हें प्रथम सम्यक्त्व के अभिमूख हआ सातवीं पृथिवी का नारकी बाँधता है। यहाँ भी 'आउगं च ण बंधदि' इस सत्रांश के द्वारा आय के बन्ध का तथा 'च' शबद से सचित अन्य कछ प्रकतियों के बन्ध का भी निषेध कर दिया गया है।
६. उत्कृष्ट स्थिति -इस छठी चूलिका में ४४ सूत्र हैं। चूलिका को प्रारम्भ करते हुए
पम जो प्रश्न उठाये गये थे उन में एक प्रश्न यह भी था कि कितने काल की स्थितिवाले कर्मों के आश्रय से सम्यक्त्व को प्राप्त करता है. अथवा नहीं करता है। उसकी यहाँ प्रथमसत्र में पुनरावृत्ति करते हुए यह कहा गया है कि 'कितने काल की स्थितिवाले कर्मों के आश्रय से सम्यक्त्व को नहीं प्राप्त करता है?' इस प्रश्न को इस चलिका में स्पष्ट किया जाता है । अभिप्राय यह है कि कर्मों की जिस उत्कृष्ट स्थिति के रहते हुए वह सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं होता है उस उत्कृष्ट स्थिति की प्ररूपणा इस छठी चूलिका में की गई है।
मूलग्रन्थगत विषय का परिचय | ५७
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