________________
आगे उस स्थिति के वर्णन की प्रतिज्ञा करते हुए यहाँ प्रथमतः पाँच ज्ञानावरणीय, नौ दर्शनावरणीय, असातावेदनीय और पाँच अन्तराय इन कर्मों की समान रूप से बँधनेवाली तीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति का उल्लेख किया गया है। साथ ही उनके आबाधाकाल और निषेकरचना के क्रम का निर्देश करते हुए यह कहा गया है कि उनका आबाधाकाल तीन हजार वर्ष है। इस आबाधाकाल से हीन उनका कर्मनिषेक होता है (२-६)।
बांधे गये कर्मस्कन्ध जब तक उदय या उदीरणा को प्राप्त नहीं होते तब तक का काल आबाधाकाल कहलाता है। बांधी गई स्थिति के प्रमाण में से इस आबाधाकाल के कम कर देने पर शेष स्थितिप्रमाण के जितने समय होते हैं उतने कर्मनिषेक होते हैं जो आबाधाकाल के अनन्तर नियमित क्रम से प्रत्येक समय में निर्जरा को प्राप्त होते हैं। उदाहरणार्थ, ऊपर जो ज्ञानावरणादि की तीन हजार वर्ष प्रमाण आबाधा बतलाई गई है उसे उस तीस सागरोपम स्थिति में से कम कर देने पर शेष स्थितिप्रमाण के जितने समय रहते हैं उतने निषेक होंगे। उनमें एकएक निषेक क्रम से तीन हजार वर्ष के अनन्तर एक-एक समय में निर्जीर्ण होनेवाला है। इस प्रकार स्थिति के अन्तिम समय में अन्तिम निषेक निर्जरा को प्राप्त होगा।
इसी पद्धति से आगे क्रम से समान स्थिति वाले अन्य साता वेदनीय आदि कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति, आबाधा और कर्मनिषेक की प्ररूपणा की गई है (७-२१)। ___ आयु कर्म को छोड़ शेष सात कर्मों की आबाधा के विषय में साधारणतः यह नियम है कि एक कोड़ाकोड़ी सागरोपम प्रमाण स्थिति की आबाधा सौ वर्ष होती है । इसी नियम के अनुसार विवक्षित कर्म की स्थिति को आबाधा के प्रमाण को प्राप्त किया जा सकता है । अन्त: कोड़ाकोड़ी प्रमाण स्थिति की आबाधा अन्तर्मुहूर्त होती है।
यह आबाधा का नियम आयु कर्म के विषय में लागू नहीं होता। आयु कर्म की आबाधा उसके बाँधने के समय जितनी भुज्यमान आयु शेष रहती है उतनी होती है। वह पूर्वकोटि के तृतीय भाग से लेकर असंक्षेपाद्धा (क्षुद्रभव के संख्यातवें भाग) पर्यन्त होती है ।
प्रस्तुत च्लिका में आयुकर्म के प्रसंग में नारकायु और देवायु की उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागरोपम प्रमाण व उसकी आबाधा पूर्वकोटि के तृतीय भाग प्रमाण निर्दिष्ट की गई है। उसका कर्मनिषेक अन्य कर्मों के समान आबाधाकाल से हीन न होकर सम्पूर्ण कर्मस्थिति प्रमाण कहा गया है। तिर्यंच आयु और मनुष्य आयु की उत्कृष्ट स्थिति तीन पल्योपम प्रमाण तथा उसका आबाधाकाल पूर्वकोटि का तृतीय भाग निर्दिष्ट किया गया है। कर्म निषेक उसका सम्पूर्ण कर्मस्थिति प्रमाण ही होता है (२२-२६)।
इसी पद्धति से आगे द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रियादि अन्य के कर्मों की भी यथासम्भव उत्कृष्ट स्थिति, आबाधा और कर्मनिषेक की प्ररूपणा की गई है (३०-४४) ।
७. जघन्यस्थिति--जिस प्रकार इससे पूर्व छठी चूलिका में सब कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति आदि की प्ररूपणा की गई है उसी प्रकार इस चूलिका में सब कर्मों की जघन्य स्थिति, आबाधा और कर्मनिषेक की प्ररूपणा की गई है। इसमें सब सूत्र ४३ हैं।
८. सम्यक्त्वोत्पत्ति---इस आठवीं चूलिका में सर्वप्रथम यह सूचना की गई है कि जीव इतने काल की स्थितिवाले, पूर्व दो चूलिकाओं में निर्दिष्ट उत्कृष्ट और जघन्य स्थिति से युक्त, कर्मों के रहते सम्यक्त्व को नहीं प्राप्त करता है। उस सम्यक्त्व की प्राप्ति कब सम्भव है इसे
५८ / षटवण्डागम-परिशीलन
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org