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________________ सात राजु और नीचे छठी पृथिवी तक पांच राजु, इतने क्षेत्र में उनका मारणान्तिकसमुद्धात सम्भव है। इस प्रकार मारणान्तिकसमुद्घात की अपेक्षा उनका बारह (७+ ५) राजु प्रमाण स्पर्शनक्षेत्र घटित होता है। कुछ कम में उसे छठी पृथिवी के नीचे के एक हजार योजन से कम समझना चाहिए। इसी प्रकार से आगे इस ओघ प्ररूपणा में सम्यग्मिथ्यादृष्टि व असंयतसम्यग्दृष्टि (५-६), संयतासंयत (७-८) और प्रमत्तसंयतादि अयोगिकेवली पर्यन्त (8) गुणस्थानवी जीवों के विषय में उस स्पर्शन के प्रमाण की प्ररूपणा की गई है। सयोगिकेवलियों के द्वारा स्पृष्ट क्षेत्र के प्रमाण में विशेषता होने से उसकी प्ररूपणा पृथक् से अगले सूत्र (१०) में की गई है। आगे आदेश की अपेक्षा गति-इन्द्रियादि चौदह मार्गणाओं में जहाँ जो-जो गुणस्थान सम्भव हैं उनमें वर्तमान जीवों के विषय में भी वह स्पर्शनप्ररूपणा इस पद्धति से की गई है। ५. कालानुगम इस पांचवें अनुयोगद्वार में समस्त सूत्र संख्या ३४२ है। यहाँ पूर्व पद्धति के अनुसार प्रथमतः ओघ की अपेक्षा और तत्पश्चात् आदेश की अपेक्षा काल की प्ररूपणा की गई है। काल से यहाँ द्रव्यकाल से उत्पन्न परिणामस्वरूप नोआगम भावकाल विवक्षित रहा है, जो कल्पकाल पर्यन्त क्रम से समय व आवली आदि स्वरूप है। काल की यह प्ररूपणा यहाँ एक जीव की अपेक्षा और नाना जीवों की अपेक्षा पृथक्-पृथक् की गई है। ओघप्ररूपणा को प्रारम्भ करते हुए यहाँ सर्वप्रथम मिथ्यादृष्टियों के काल का उल्लेख किया गया है व कहा गया है कि मिथ्यादृष्टि जीव नाना जीवों की अपेक्षा सर्व काल रहते हैं। पर एक जीव की अपेक्षा उनका वह काल अनादि-अपर्यवसित, अनादि-सपर्यवसित और सादि-सपर्यवसित है। आगे सूत्र में सादि-सपर्यवसित काल को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि जिनमें सादि-सपर्यवसित काल है उसका प्रमाण जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तन है (२-४)। यहाँ जो मिथ्यात्व का काल अनादि-अपर्यवसित कहा गया है वह अभव्य जीव की अपेक्षा कहा गया है, क्योंकि उसके मिथ्यात्व का न आदि है, न अन्त और न मध्य है—वह सदा बना रहने वाला है । दूसरा अनादि-सपर्यवसित काल उस भव्य के मिथ्यात्व को लक्ष्य में रखकर निर्दिष्ट किया गया है जो अनादि काल से मिथ्यादृष्टि रहकर अन्त में उससे रहित होता हुआ सम्यग्दृष्टि हो जाता है और पुनः मिथ्यात्व को न प्राप्त होकर मुक्ति को प्राप्त कर लेता है । धवला में उसके लिए वर्धनकुमार का उदाहरण दिया गया है। __ सादि-सपर्यवसित मिथ्यात्व का काल जघन्य और उत्कृष्ट के रूप में दो प्रकार का है। इनसे जघन्य से उसका प्रमाण अन्तर्मुहूर्त है । जैसे—कोई सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत अथवा प्रमत्तसंयत परिणाम के वश मिथ्यात्व को प्राप्त हुआ । वह उस सादि मिथ्यात्व के साथ सबसे जघन्य अन्तर्मुहर्तकाल रहकर फिर से भी सम्यग्मिथ्यात्व, असंयम के साथ सम्यक्त्व, संयमासंयम अथवा अप्रमत्तस्वरूप से संयम को प्राप्त हुआ। इस प्रकार उसके उस सादि मिथ्यात्व का सबसे जघन्य काल उसका उत्कृष्ट काल कुछ कम अर्धपुदगल परिवर्तन है। कारण यह है कि उक्त प्रकार से मिथ्यात्व को प्राप्त जीव उस मिथ्यात्व के साथ अधिक-से-अधिक कुछ (चौदह अन्तर्मुहूर्त) ५२ / षट्सण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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