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________________ रूप से रचित अगले सूत्र (४) में यह स्पष्ट कर दिया गया है कि सयोगिकेवली लोक के असंख्यातवें भाग में, लोक के असंख्यात बहुभागों में, अथवा सब ही लोक में रहते हैं। इसमें जो उनका लोक का असंख्यातवाँ भाग क्षेत्र कहा गया है वह दण्ड और कपाट समुद्घातगत केवलियों की अपेक्षा कहा गया है। प्रतरसमुद्घातगत कैवलियों का क्षेत्र जो लोक के असंख्यात बहुभाग प्रमाण कहा गया है उसका अभिप्राय यह है कि वे वातवलय से रोके गये लोक के असंख्यातवें भाग को छोड़कर शेष बहुभागों में रहते हैं। लोकपूरणसमुद्घातगत केवली ३४३ घनराजु प्रमाण सब ही लोक मे रहते हैं, क्योंकि इस समुद्धात में उनके आत्मप्रदेश समस्त लोकाकाश को ही व्याप्त कर लेते हैं। इस प्रकार यहाँ ओघप्ररूपणा २-४ सूत्र में समाप्त हो जाती है। आदेशप्ररूपणा में पूर्व पद्धति के अनुसार प्रस्तुत क्षेत्र प्ररूपणा भी गति-इन्द्रिय आदि चौदह मार्गणाओं, जहाँ जो गुणस्थान सम्भव हैं उनमें वर्तमान जीवों की, की गई है (५-६२)। इस प्रकार यह क्षेत्रानुगम ६२ सूत्रों में समाप्त हुआ। ४. स्पर्शनानुगम इस चौथे स्पर्शनानुगम अनुयोगद्वार में सब सूत्र १८५ हैं । स्पर्शन से अभिप्राय जीवों के द्वारा स्पृष्ट क्षेत्र का है । पूर्व क्षेत्रानुगम में जहाँ जीवों के क्षेत्र की प्ररूपणा वर्तमानकाल के आश्रय से की गई है वहाँ इस स्पर्शनानुगम अनुयोगद्वार में विभिन्न जीवों के द्वारा तीनों कालों में स्पर्श किए जानेवाले क्षेत्र की प्ररूपणा की गई है। यह क्षेत्रानगम की अपेक्षा इस स्पर्शनानुगम की विशेषता है। यहाँ ओघ की अपेक्षा स्पर्शन की प्ररूपणा में सर्वप्रथम मिथ्यादष्टि जीवों के द्वारा कितना क्षेत्र स्पर्श किया गया है, इसे स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि उनके द्वारा सब ही लोक का स्पर्श किया गया है (सूत्र २)। इसका अभिप्राय यह है कि समस्त लोक में ऐसा कोई प्रदेश नहीं है, जो मिथ्यादृष्टि जीवों से अछूता रहा हो। ___ आगे सासादनसम्यग्दप्टियों के स्पर्शनक्षेत्र का निर्देश करते हुए कहा गया है कि उनके द्वारा लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श किया गया है । यह उनका क्षेत्र प्रमाण वर्तमान काल की अपेक्षा निर्दिष्ट किया गया है, जो पूर्व क्षेत्रानुगम में भी कहा जा चुका है। __ अतीत काल की अपेक्षा उनके स्पर्शनप्रमाण को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि अथवा उनके द्वारा लोकनाली के चौदह भागों में से कुछ कम आठ भाग (८/१४) और कुछ कम बारह भाग स्पर्ण किए गए हैं (३-४)। सूत्र निदिष्ट उनका वह आठ बटे चौदह भाग स्पर्शनक्षेत्र विहार अथवा वेदनासमुद्घातादि में परिणत सासादनसम्यग्दष्टियों के सम्भव है। कारण यह है कि भवनवासी देव मेरुतल से नीचे तीसरी पृथिवी तक दो धनराजु क्षेत्र में जाते हैं तथा ऊपर वे उपरिम देवों के प्रयोग से सोलहवें कल्प तक छह घनराजु क्षेत्र में जा सकते हैं । इस प्रकार चौदह घन राजु प्रमाण वसनाली में आठ (२+६) राजु प्रमाण क्षेत्र में उनका गमन सम्भव है । कुछ कम में उसे तीसरी पृथिवी के नीचे के एक हजार योजनों से कम समझना चाहिए। उनका बारह बटे चौदह भाग स्पर्शनक्षेत्र मारणान्तिक समुद्घातगत सासादनसम्यग्दृष्टियों की अपेक्षा कहा गया है। इसका कारण यह है कि मेरुतल से ऊपर ईषत्प्राग्भार पृथिवी तक मूलगन्धगत विषय का परिचय | ५१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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