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गई है । यथा
सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त के स्थितिबन्धस्थान सबसे स्तोक हैं, बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त के स्थितिबन्धस्थान उनसे संख्यातगुणे हैं, सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त के स्थितिबन्धस्थान उनसे संख्यातगुणे इत्यादि (३७-५०)।
धवलाकार ने इस अव्वोगाढ अल्पबहुत्वदण्डक को देशामर्शक बतलाकर यहाँ उसके अन्तर्गत स्वस्थान अव्वोगाढ अल्पबहुत्व, परस्थान अव्वोगाढ अल्पबहुत्व, स्वस्थान मूलप्रकृति अल्पबहुत्व और परस्थान मूलप्रकृति अल्पबहुत्व आदि विविध अल्पबहुत्वों की प्ररूपणा की है।'
इसी प्रसंग में आगे सूत्रकार द्वारा संक्लेश-शुद्धिस्थानों (५१-६४) और स्थितिबन्ध (६५-१००) के अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की गई है।
निषेकप्ररूपणा अनुयोगद्वार में अनन्तरोपनिधा और परम्परोपनिधा इन दो अनुयोगद्वारों का निर्देश करते हुए प्रथमतः अनन्तरोपनिधा के अनुसार पंचेन्द्रिय संज्ञी मिथ्यादृष्टि आदि के द्वारा ज्ञानावरणीय आदि कर्मों के प्रथम-द्वितीयादि समयों में निषिक्त प्रदेशाग्र सम्बन्धी प्रमाण को प्रकट किया गया है (१०१-१०)।
परम्परोपनिधा के अनुसार पंचेन्द्रिय संज्ञी-असंज्ञी आदि जीवों के द्वारा प्रथम समय में निषिक्त आठों कर्मों का प्रदेशाग्र कितना अध्वान जाकर उत्तरोत्तर दुगुना-दुगुना हीन हुआ है, इत्यादि का विवेचन किया गया है (१११-२०)।
आबाधाकाण्डकप्ररूपणा से यह अभिप्राय प्रकट किया गया है कि पंचेन्द्रिय संजीअसंज्ञी व चतुरिन्द्रिय आदि जीवों के द्वारा आयु को छोड़कर शेष सात कर्मों की जो उत्कृष्ट आबाधा के अन्तिम समय में उत्कृष्ट स्थिति बाँधी जाती है उसमें क्रम से एक-एक समय के हीन होने पर पल्योपम के असंख्यातवें भाग नीचे जाकर एक आबाधाकाण्डक किया जाता है। यह क्रम जघन्य स्थिति तक चलता है (१२१-२२)। ___आयुकर्म की अमुक स्थिति अमुक अाबाधा में ही बंधती है, ऐसा कुछ नियम न होने से उसे यहाँ छोड़ दिया गया है।
___ अल्पबहुत्व-यहां पंचेन्द्रिय संज्ञी व असंज्ञी आदि जीवों की सात कर्मों सम्बन्धी आबाधा, आबाधास्थान, आबाधाकाण्डक, नानाप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर, एक प्रदेशगुणहानिस्थानान्तर, स्थितिबन्ध और स्थितिबन्धस्थान इनमें हीनाधिकता को प्रकट किया गया है (१२३-६४)।
यहाँ धवला में इस अल्पबहुत्व से सूचित अन्य कितने ही अल्पबहुत्वों की प्ररूपणा विस्तार से की गई है। ___इस प्रकार इस अल्पबहुत्व अनुयोगद्वार के समाप्त हो जाने पर यह चूलिका समाप्त
चूलिका २
यह प्रस्तुत कालविधान की दूसरी चूलिका है। इसमें ये तीन अनुयोगद्वार हैं----जीव
१. धवला पु० ११, पृ० १४७-२०५ २. वही, पु० ११, पृ० २७६-३०८
९० / षट्खण्डागम-परिशीलन
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