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________________ साथ विरोध का प्रसंग प्राप्त होता है । " देवों व नारकियों की उत्कृष्ट आयु को नभचर नहीं बाँधते, इस अभिप्राय को व्यक्त करने के लिए सूत्र में जलचर और थलचर इन दो को ही ग्रहण किया गया है। काल की अपेक्षा इस उत्कृष्ट आयुवेदना से भिन्न अनुत्कृष्ट आयु वेदना है (१३) १ जघन्य पद में काल की अपेक्षा जघन्य ज्ञानावरणीय वेदना के स्वामी का निर्देश करते हुए कहा गया है कि वह अन्यतर अन्तिम समयवर्ती छद्मस्थ के होती है। इससे भिन्नकाल की अपेक्षा अजघन्य ज्ञानावरणीय वेदना है (१५-१६) । जिस प्रकार काल की अपेक्षा जघन्य - अजघन्य ज्ञानावरणीय - वेदना की प्ररूपणा गई है उसी प्रकार काल की अपेक्षा जघन्य - अजघन्य दर्शनावरणीय और अन्तराय वेदनाओं की भी प्ररूपणा करना चाहिए, क्योंकि उससे इनकी प्ररूपणा में कुछ विशेषता नहीं है (१७) । स्वामित्व के अनुसार जघन्य पद में काल की अपेक्षा वेदनीयवेदना जघन्य किसके होती है, इसे स्पष्ट करते हुए आगे कहा गया है कि वह अन्तिम समयवर्ती भव्यसिद्धिक ( अयोगिकेवली ) के होती है। इससे भिन्न काल की अपेक्षा वेदनीयवेदना अजघन्य है ( १८-२० ) । जिस प्रकार वेदनीयवेदना के जघन्य - अजघन्य स्वामित्व की प्ररूपणा की गई है उसी प्रकार श्रायु, नाम और गोत्र कर्मों के भी जघन्य - अजघन्य स्वामित्व की भी प्ररूपणा करना चाहिए (१२१) । मोहनीय वेदना काल की अपेक्षा जघन्य अन्तिम समयवर्ती अन्यतर सकषाय ( सूक्ष्मसाम्परायिक) क्षपक के होती है। इससे भिन्न काल की अपेक्षा अजघन्य मोहनीयवेदना है (२२-२४) । अल्पबहुत्व अनुयोगद्वार में ये तीन अवान्तर अनुयोगद्वार हैं— जघन्य पदविषयक, उत्कृष्ट पदविषयक और जघन्य - उत्कृष्ट पदविषयक । इन तीन के आश्रय से क्रमशः काल की अपेक्षा उन ज्ञानावरणीय आदि कर्मवेदनाओं के अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की गई है (२५-३५) । इस प्रकार पदमीमांसा, स्वामित्व और अल्पबहुत्व इन तीन अनुयोगद्वारों के समाप्त हो जाने पर यह वेदनाकालविधान अनुयोगद्वार समाप्त हुआ है । चूलिका १ उपर्युक्त वेदनाकालविधान के समाप्त हो जाने पर आगे उसकी चूलिका प्राप्त हुई है। धवलाकार ने कालविधान के द्वारा सूचित अर्थों के विवरण को चूलिका कहा है । जिस अर्थ की प्ररूपणा करने पर शिष्यों को पूर्वप्ररूपित अर्थ के विषय में निश्चय उत्पन्न होता है उसे चूलिका समझना चाहिए । यहाँ सर्वप्रथम सूत्र में कहा गया है कि यहाँ जो मूलप्रकृतिस्थितिबन्ध पूर्व में ज्ञातव्य है उसमें ये चार अनुयोगद्वार हैं -- स्थितिबन्धस्थान प्ररूपणा, निषेक प्ररूपणा, आबाधाकाण्डक प्ररूपणा और अल्पबहुत्व ( ३६ ) । स्थितिबन्धस्थानप्ररूपणा में जीवसमासों के आश्रय से स्थितिबन्धस्थानों की प्ररूपणा की १. धवला पु० ११, पृ० ११४-१५ Jain Education International मूलग्रन्थगत विषय का परिचय / ८ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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