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________________ से जीवकाण्ड में स्पर्श (१२), काल (१३) और अन्तर (१४) इन तीन अधिकारों में उन कृष्णादि छह लेश्यावाले जीवों के क्रम से स्पर्श, काल और अन्तर की प्ररूपणा है।' २४. भाव की प्ररूपणा के प्रसंग में जिस प्रकार षट्खण्डागम में छहों लेश्याओं को भाव से औदयिक कहा गया है उसी प्रकार जीवकाण्ड में भी भाव की अपेक्षा उन्हें प्रौदयिक कहा गया है। २५. षट्खण्डागम के इसी क्षुद्रकबन्ध खण्ड के अन्तर्गत ११वें अल्पबहुत्व अनुयोगद्वार में उक्त कृष्णादि लेश्या युक्त जीवों के अल्पबहुत्व की विवेचना है। जीवकाण्ड में अल्पबहुत्व अधिकार के प्रसंग में इतना मात्र कहा गया है कि उनका अल्पबहुत्व द्रव्यप्रमाण से सिद्ध है।' मूलाचार ऊपर के विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि जी० का० में पूर्वोक्त १६ अधिकारों के आश्रय से जो लेश्या की प्ररूपणा की गई है उसका बहुत-सा विषय यथाप्रसंग षट्खण्डागम में चचित है। जो कुछ विषय षट् खण्डागम में नहीं उपलब्ध होता है वह अन्यत्र मूलाचार और तत्त्वार्थवार्तिक आदि में उपलब्ध होता है जैसे-- जीवकाण्ड के अन्तर्गत सोलह अधिकारों में से वें 'स्वामी' अधिकार में चारों गतियों के विभिन्न जीवों में किनके कौन-सी लेश्या होती है, इसका विचार किया गया है (५२८-३४)। मूलाचार के अन्तिम पर्याप्ति' अधिकार में उक्त कृष्णादि लेश्याओं के स्वामियों का विचार किया गया है। जीवकाण्ड में जो लेश्याओं का स्वामीविषयक विचार किया गया है वह मूलाचार की उस स्वामीविषयक प्ररूपणा से प्रभावित रहा दिखता है। इतना ही नहीं, उस प्रसंग में प्रयुक्त मूलाचार की कुछ गाथाएँ भी जीवकाण्ड में उसी रूप में उपलब्ध होती हैं । जैसे-- गाथांश मूलाचार जीवकाण्ड काऊ काऊ तह काउ १२-६३ ५२८ तेऊ तेऊ तह तेऊ १२-६४ ५३४ तिण्हं दोण्हं दोण्हं १२-६५ ५३३ ये तीन गाथाएँ दोनों ग्रन्थों में शब्दशः समान हैं। विशेष इतना है कि मूलाचार गाथा ६३ के चतुर्थ चरण में जहाँ 'रयणादिपुढवीसु' पाठ है वहाँ जीवकाण्ड में उसके स्थान में 'पढमादिपुढवीणं' पाठ है । यह शब्दभेद ही हुआ है, अभिप्राय में भेद नहीं है। आगे की गाथा के चतुर्थ चरण में जहाँ मूलाचार में 'लेस्साभेदो मुणेयव्वो' पाठ है वहां जीवकाण्ड में उसके स्थान में 'भवणतियापुण्णगे असुहा' पाठभेद है । १. सूत्र २,७,१६३-२१६ (स्पर्श), सूत्र २,२,१७७-८२ (काल) और सूत्र २,३,१२५-३० तथा जी० का० गा० ५४४-४६ (स्पर्श), ५५०-५५१ (काल) और गाथा ५५२-५३ (अन्तर)। २. १० ख०, सूत्र २,१,६०-६३ और जी०का० गाथा ५५४ (पूर्वार्ध)। ३. ष०ख०, सूत्र २,११,१७६-८५ तथा जी०का० गाथा० ५५४ ३१२ / षट्खण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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