________________
यहाँ यह स्मरणीय है कि उपर्युक्त तीन गाथाओं में पूर्व की दो गाथाएँ श्वे० 'जीवसमास अन्य में भी प्रायः उसी रूप में उपलब्ध होती हैं (गाथा ७२-७३)। यहाँ विशेषता यह है कि दसरी गाथा के चतुर्थ चरण में जहाँ मूलाचार में 'लेस्साभेदो मुणेयव्वो' पाठ है व जीवकाण्ड में 'मवणतियापूण्णगे' पाठ है वहाँ जीवसमास में उसके स्थान में 'सक्कादिविमाणवासीणं' पाठभेद है।
यह पाठभेद व तदनुसार जो कुछ अभिप्रायभेद भी हया है उसका कारण सम्भवतः १२ और १६ कल्पों की मान्यता रही है ।
तत्त्वार्थसूत्र में देवों में लेश्याविषयक स्वामित्व का प्ररूपक यह सूत्र है-“पीत-पद्मशक्ललेश्या द्वि-त्रि-शेषेषु" । वह सर्वार्थसिद्धिसम्मत (४-२२) और त० भाष्यसम्मत (४-२३) दोनों ही सूत्र पाठों में समान है । पर १६ और १२ कल्पों की मान्यता के अनुसार उसका अर्थ भिन्न रूप में किया गया है।
यहां तत्त्वार्थवार्तिक में यह शंका की गई है कि सूत्र में जो 'द्वि-त्रि-शेषेषु' पाठ है तदनुसार पूर्वोक्त लेश्या की वह व्यवस्था नहीं बनती है। उसके समाधान में प्रथम तो वहाँ यह कहा गया है कि इच्छा के अनुसार सम्बन्ध बैठाया जाता है, इससे उस व्यवस्था में कुछ दोष नहीं है। तत्पश्चात् प्रकारान्तर से यह भी कहा गया है-अथवा सूत्र में 'पोत-मिश्र-पद्म-मिश्र-शुक्ललेश्या' ऐसे पाठान्तर का आश्रय लेने से आगमविरोध सम्भव नहीं है।
जीवकाण्ड में गाथा ५२६-३२ के द्वारा लेश्याविषयक कुछ और भी विशेष प्ररूपणा की गई है। उनमें गाथा ५२६-३० का अभिप्राय प्रायः मूलाचारगत गाथा ६६ के समान है।
जीवकाण्ड में अन्य भी ऐसी कितनी ही गाथाएं हो सकती हैं, जो यथास्थान मूलाचार में उपलब्ध होती हैं । जैसेगाथांश
जीवकाण्ड
मलाचार संखावत्तयजोणी
८१
१२-६१ कुम्मुण्णयजोणीये
१२-६२ णिच्चिदरधातु सत्त य
५-२६ व १२-६३ बाबीस सत्त तिण्णि य
११३
५-२४ व १२-१६६ अद्धत्तेरस बारस
५-२६ व १२-१६५ छप्पंचाधियवीसं
५-२७ व १२-१६९ एया य कोडिकोडी
११६
५-२८ (गाथा ११५-१६ में कुछ शब्दभेद व अभिप्रायभेद भी हुआ है) पंच वि इंदियपाणा
१२-१५०
८६
तस्वार्थवातिक
जीवकाण्ड में पूर्वोक्त १६ अधिकारों के आश्रय से जो लेश्या की प्ररूपणा की गई है उसके साथ यदि पूर्णतया मेल बैठता है तो तत्त्वार्थवार्तिक में प्ररूपित लेश्या की प्ररूपणा के साथ बैठता है। वहां उसी क्रम से उन निर्देशादि १६ अनुयोगद्वारों के आश्रय से लेश्या की प्ररूपणा है जो इन दोनों प्रन्थों में सर्वथा समानरूपता को प्राप्त है। उदाहरणस्वरूप 'लेश्याकर्म' को ले लीजिए । तत्त्वार्थ वार्तिक में उस के विषय में कहा गया है
"लेश्याकर्म उच्यते-जम्बूफलभक्षणं निदर्शनं कृत्वा स्कन्ध-विटप-शाखानुशाखा-पिण्डिका
षट्खण्डागम को अन्य प्रन्यों से तुलना / ३१३
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org