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________________ गुणस्थान के साथ प्रविष्ट होते हैं और किस गुणस्थान के साथ वहाँ से निकलते हैं। यह प्रसंग भी त० वा० में पूर्णतया १० ख० से प्रभावित है । यथा 'रइया मिच्छत्तेण अधिगदा केइं मिच्छत्तण णीति । केई मिच्छत्तेण अधिगदा सासणसम्मत्तेण णीति । केई मिच्छत्तेण अधिगदा सम्मत्तण णीति । सम्मत्तेण अधिगदा सम्मत्तेण चेव णीति । एवं पढ़माए पुढवीए णेरइया । बिदियाए जाव छट्ठीए पुढवीए णेरइया मिच्छत्तेण अधिगदा केई मिच्छत्तेण णीति । मिच्छत्तेण अधिगदा केई सासणसम्मत्तेण णीति । मिच्छत्तेण अधिगदा केइं सम्मत्तेण णीति । सत्तमाए पुढवीए णेरइया मिच्छत्तेण चेव णीति ।" -ष०ख०, सूत्र १,६-६ ४४-५२ (पु० ६) "प्रथमायामुत्पद्यमाना नारका मिथ्यात्वेनाधिगताः केचिन्मिथ्यात्वेन निर्यान्ति । मिथ्यात्वेनाधिगताः केचित् सासादनसम्यक्त्वेन निर्यान्ति । मिथ्यात्वेन प्रविष्टाः केचित् सम्यक्त्वेन । केचित् सम्यक्त्वेनाधिगताः सम्यक्त्वेनैव निर्यान्ति क्षायिकसम्यग्दृष्ट्यपेक्षया। द्वितीयादिषु पञ्चसु नारका मिथ्यात्वेनाधिगताः केचिन्मिथ्यात्वेन निर्यान्ति। मिथ्यात्वेनाधिगताः केचित सासादनसम्यक्त्वेन निर्यान्ति। मिथ्यात्वेन प्रविष्टाः केचित् सम्यक्त्वेन निर्यान्ति । सप्तम्यां नारका मिथ्यात्वेनाधिगता मिथ्यात्वेनैव निर्यान्ति ।" त० वा०३,६,६ पृ० ११८ ६. त० व० में इसी सूत्र की व्याख्या में आगे नारक पृथिवियों से निकलते हुए नारकी किन गतियों में आते हैं, इसे स्पष्ट किया गया है । यह प्रसंग भी ष० ख० से सर्वथा समान 'णेरइयामिच्छाइट्ठी सासणसम्माइट्ठी णिरयादो उन्वद्विदसम्माणा कदि गदीओ आगच्छंति ? दो गदीओ आगच्छंति तिरिक्खगदि चेव मणुसगदि चेव । तिरिक्खेसु आगच्छंता पंचिदिएसु आगच्छंति, णो एइंदिय-विगलिदिएसु। पंचिदिएसु आगच्छंता सण्णीसु आगच्छंति, णो असण्णीसु । सण्णीसु आगच्छंता गब्भोवक्कंतिएसु आगच्छंति, णो सम्मुच्छिमेसु । गब्भोवक्कंतिएसु आगच्छंता पज्जत्तएसु आगच्छंति, णो अपज्जत्तएसु । पज्जत्तएसु आगच्छंता संखेज्जवस्साउएसु आगच्छंति, णो असंखेज्जवस्साउएस।" --ष० ख०, सूत्र १,-६-६, ७६-८२ (पु० ६) "षड्भ्य उवरि पृथिवीभ्यो मिथ्यात्व-सासादनसम्यक्त्वाभ्यामुर्तिताः केचित् तिर्यड्.-मनुष्यगतिमायान्ति। तिर्यक्ष्वायाताः पञ्चेन्द्रिय-गर्भज-संज्ञि-पर्याप्तक-संख्येय-वर्षायुःषुत्पद्यन्ते, नेतरेषु ।” --त० वा० ३,६,६ (पृ० ११८) दोनों ग्रन्थगत यह प्रसंग शब्दशः समान है। विशेषता यह है कि षट्खण्डागम में जहाँ पंचेन्द्रिय, गर्भज, संज्ञी, पर्याप्त और संख्यातवर्षायुष्कों में आने का उल्लेख पृथक्-पृथक् सूत्रों द्वारा किया गया है वहाँ तत्त्वार्थवार्तिक में उनका उल्लेख संक्षेप में 'पञ्चन्द्रिय-गर्भज' आदि एक ही समस्त पद में कर दिया गया है, अभिप्राय में कोई भेद नहीं रहा है। ष०ख० में आगे यह प्रसंग जहाँ ८३-१०० सूत्रों में समाप्त हुआ है वहाँ त०वा० में वहीं पर वह दो पंक्तियों में समाप्त हो जाता है, फिर भी अभिप्राय कुछ भी छूटा नहीं है। १०. त० वा० में आगे इसी प्रसंग में यह स्पष्ट किया गया है कि नारकी उन पृथिवियों से निकलकर किन गतियों में आते हैं व वहाँ आकर वे किन गुणों को प्राप्त करते हैं यह प्रसंग भी दोनों ग्रन्थों में द्रष्टव्य है जो शब्दशः समान है "अधो सत्तमाए पुढवीए णेरइया णि रयादो णेरइया उव्वट्ठिद-समाणा कदि गदीओ आगच्छंति ? एक्कं हि चेव तिरिक्खगदिमागच्छंति ति । तिरिक्खेसु उववण्णल्लया तिरिक्खा २१४ / षट्खण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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