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छण्णो उप्पा एंति - आभिणिबोहियणाणं णो उप्पाएंति, सुदणाणं णो उप्पाएंति, ओहिणाणं णो उप्पाएंति, सम्मामिच्छत्तं णो उप्पाएंति, सम्मत्तं णो उप्पाएंति, संजमासंजमं णो उप्पाएंति ।" - प० ख०, सूत्र १,६ - ६, २०३ - ५ “सप्तम्यां नारका मिथ्यादृष्टयो नरकेभ्य उद्वर्तिता एकामेव तिर्यग्गतिमायान्ति । तिर्यक्ष्वायाताः पंचेन्द्रिय- गर्भज-पर्याप्तक-संख्येय वर्षायुः षूत्पद्यन्ते, नेतरेषु । तत्र चोत्पन्नाः सर्वे मतिश्रुतावधि सम्यक्त्व- सम्यड्. मिथ्यात्व-संयमासंयमान् नोत्पादयन्ति ।" - त०वा० ३,६,७ इसी प्रकार दोनों ग्रन्थों में आगे छठी - पाँचवीं आदि पृथिवियों निकलने वाले नारकियों से सम्बन्धित यह प्रसंग भी सर्वथा समान है । (देखिए ष० ख० सूत्र १, ६-६,२०६ २० और त०वा० ३,६,७ पृ० ११८ - १६ )
११. त०वा० में पीछे ऋजुमतिमन:पर्यय के ये तीन भेद किए गये हैं-- ऋजुमनोगत विषय, ऋजुवचनगतविषय और ऋजुकायगतविषय । यथा
"आद्यस्त्रेधार्जु' मनोवाक्कायविषयभेदात् । "
- त०वा० १, २, ३, ६ ष०ख० में ऋजुमतिमन:पर्ययज्ञान के आवारक ऋजुमतिमन:पर्ययज्ञानावरणीय के वे ही तीन भेद इस प्रकार निर्दिष्ट किए गये हैं
"जं तं उजुमदिमणपज्जवणाणावरणीयं णाम कम्मं तं तिविहं -- उजुगं मणोगदं जाणदि उगं वचिगदं जाणदि उजुगं कायगदं जणादि । ” - सूत्र ५, ५, ६२ ( पु० १३, पृ० ३२६ ) यद्यपि 'आवरणीय' के साथ 'जाणदि' पद का प्रयोग असंगत-सा दिखता है, फिर भी धवलाकार ने मूलग्रन्थकार के अभिप्राय को इस प्रकार स्पष्ट कर दिया है—
"जेण उजुमणोगदट्ठविसयं उजुवचिगदट्ठविसयं उजुकायगदट्ठविसयं ति तिविहमुजुमदिणाणं तेण तदावरणं पि तिविहं होदि । " - पु० १३, पृ० ३२६-३६ त०वा० में आगे ऋजुमतिमन:पर्यय के उक्त भेदों के स्पष्टीकरण के प्रसंग में यह शंका की गई है कि यह अभिप्राय कैसे उपलब्ध होता है । इसके उत्तर में वहाँ कहा गया है कि आगम के अविरोध से वह अभिप्राय उपलब्ध होता है । यह कहते हुए वहाँ कहा गया है
"आगमे ह्य ुक्तं मनसा मनः परिच्छिद्य परेषां संज्ञादीन् जानाति इति, मनसा आत्मनेत्यर्थः । ``तमात्मना आत्माऽवबुध्याऽऽत्मनः परेषां च चिन्ता- जीवित-मरण-सुख-दुःख-लाभा लाभादीन् विजानाति । व्यक्तमनसां जीवानामर्थं जानाति, नाव्यक्तमनसाम् ।"
- त०वा० १,२३, ६ ( पृ० ५८ ) त०वा० में यहाँ 'आगम' से अभिप्राय प० ख० के इन सूत्रों का रहा है । मिलान कीजिए— "मणेण माणसं पडिविंदइत्ता परेसि संण्णा मदि सदि चिंता जीविद मरणं लाहालाहं सुहदुक्खं यरविणासं देसविणासं जणवयविणासं खेडविणासं कव्वडविणासं मडंबविणासं पट्टणविणासं दोणामुहविणासं अइवुट्ठि प्रणावुट्ठि सुवुट्ठि दुवुट्ठि सुभिक्खं दुब्भिक्खं खेम खेम-भयरोग- कालसंपजुत्ते अत्थे वि जणादि । किं चि भूओ - अप्पणी परेसिं च वत्तमाणाणं जीवाण जाणदि, जो अव्वत्तमाणाणं जाणदि । "
-- ष०ख०, सूत्र ५, ५, ६३-६४ ( पु० १३, पृ० २३२ व २३६-३७ ) धवला में 'वत्तमाणाणं' आदि का स्पष्टीकरण इस प्रकार किया गया है— '''''व्यक्तं निष्पन्नं संशय-विपर्ययानध्यवसायविरहितं मनः येषां ते व्यक्तमनसः, तेषां व्यक्तमनसां जीवानां परेषामात्मनश्च सम्बन्धि वस्त्वन्तरं जानाति, नो अव्यक्तमनसां जीवानां
षट्खण्डागम की अन्य ग्रन्थों से तुलना / २१५
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