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यति । (यहाँ ष० ख० की अपेक्षा एक 'भव्य' पद अधिक है)।
-त० वा० २,३,२ यह ष० ख० के इस सत्र का छायानुवाद है“सो पुण पंचिंदिओ सण्णी मिच्छाइट्ठी पज्जत्तओ सव्वविसुद्धो।" -सूत्र १,६-८,४
७. आगे त० वा० में यहीं पर यह कहा गया है कि इस प्रकार प्रथम सम्यक्त्व को उत्पन्न करता हुआ वह अन्तर्मुहूर्त वर्तता है, अन्तरकरण करता है । अन्तरकरण करके मिथ्यात्व के तीन भाग करता है-सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व । अनन्तर यहाँ नरकगति में वह सम्यग्दर्शन किन कारणों से उत्पन्न होता है, इसे स्पष्ट किया गया है । यह सब सन्दर्भ ष० ख० से कितना प्रभावित है, द्रष्टव्य है
(क) “पढमसम्मत्तमुप्पादेतो अंतोमुत्तमोहदि । ओहदूण मिच्छत्तं तिण्णिभागं करेदि सम्मत्तं मिच्छत्तं सम्मामिच्छत्तं। दसणमोहणीयं कम्म उवसामेदि। उवसामेंतो कम्हि उवसामेदि ? चदुसु वि गदीसु उवसामेदि ।"
-ष०ख०, सूत्र १,६-८,६ "उत्पादयन्नसावन्तर्मुहूर्तमेव वर्तयति अपवर्त्य' च मिथ्यात्व कर्म त्रिधा विभजते सम्यक्त्वं मिथ्यात्वं सम्यड्.मिथ्यात्वं चेति । दर्शनमोहनीयं कर्मोपशमयन् क्वोपशमयति ? चतसृषु गतिषु ।"
-त० वा० २,३,२ (ख) “णे रइया मिच्छाइट्ठी पढमसम्मत्तमुप्पादेंति । उप्पादेंता कम्हि उप्पादेंति ? पज्जत्तएसु उप्पादेंति, णो अपज्जएसु । पज्जत्तएसु उत्पादेंता अंतोमुहत्तप्पहुडि जाव तप्पाओग्गंतोमुहुत्तं उवरिमुप्पा-ति, णो हेट्ठा । एवं जाव सत्त सु पुढवीसु णेरइया। रइया मिच्छाइट्ठी कदिहि कारणेहि पढमसम्मत्तमुप्पादेंति ? तीहिं कारणेहिं पढमसम्मत्तमुप्पादेति । केइं जाइस्सरा केइं सोऊण केई वेदणाहिभूदा । एवं तिसु उवरिमासु पुढवोसु णेरइया। चदुसु हेट्ठिमासु पुढवीसु णेरइया मिच्छाइट्ठी कदिहि करणेहि पढमसम्मत्तमुप्पादेंति ? दोहि कारणेहिं पढमसम्मत्तमुप्पा-ति । केइं जाइस्सरा केइं वेयणाहिभूदा ।" ---१० ख० १, ६-६, १-१२ (पु० ६)
"तत्र नारकाः प्रथमसम्यक्त्व मुत्पादयन्तः पर्याप्तका उत्पादयन्ति नापर्याप्तकाः, पर्याप्तकाश्चान्तमहूर्तस्योपरि उत्पादयन्ति नाधस्तात् । एवं सप्तसु पृथिवीषु तत्रोपरि तिसृषु पृथिवीषु नारकास्त्रिभि: कारणः सम्यक्त्वमुपजनयन्ति-केचिज्जाति स्मृत्वा केचिद् धर्मं श्रुत्वा केचिद् वेदनामिभूताः । अधस्ताच्चतसृषु पृथिवीषु द्वाभ्यां कारणाभ्याम्-केचिज्जाति स्मृत्वा अपरे वेदनाभिभूताः।"
-त० वा० २, ३,२ ___इस प्रकार त० वा० में ष० ख० के सूत्रों का रूपान्तर जैसा किया गया है। जैसा कि पीछे 'सर्वार्थसिद्धि' के प्रसंग में स्पष्ट किया जा चुका है, ष० ख० में अपनी प्रश्नोत्तर पद्धति के अनुसार कुछ पुनरुक्ति हुई है, जो त० वा० में नहीं है।
सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति के इन कारणों की प्ररूपणा आगे तिर्यंचों, मनुष्यों और देवों में भी शब्दशः समान रूप से ही दोनों ग्रन्थों में की गई है। (देखिए ष० ख० सूत्र १,६-६ १३-४३ तथा त० वा०२,३,२)
८. त० वा० में नारकियों की आयु के प्ररूपक सूत्र (३-६) की व्याख्या करते हुए उस प्रसंग में यह भी स्पष्ट किया गया है कि नारकपृथिवियों में उत्पन्न होनेवाले नारकी वहाँ किस
१. यहाँ 'ओहदेंदि' और 'ओहट्टेदूण' इन प्राकृत शब्दों के रूपान्तर करने अथवा प्रतिलिपि
के करने में कुछ गड़बड़ी हुई प्रतीत होती है ।
षट्खण्डागम की अन्य ग्रन्थों से तुलना | २१३
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