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________________ अभिव्यक्त करने के लिए उक्त ग्यारह गुणश्रेणियों की प्ररूपणा की जा रही है। प्रकारान्तर से इस शंका का समाधान करते हुए धवला में आगे यह भी कहा गया हैअथवा द्रव्यविधान में जघन्य स्वामित्व के प्रसंग में गुणश्रेणिनिर्जरा की सूचना की गयी है। उस गुणश्रेणिनिर्जरा का कारण भाव है, इसलिए यहाँ भावविधान में उसके विकल्पों की प्ररूपणा के लिए उस गुणश्रेणिनिर्जरा और उसके काल की प्ररूपणा की जा रही है। गाथा में प्रयुक्त 'सम्यक्त्वोत्पत्ति' पद को स्पष्ट करते हुए धवला में कहा गया है कि 'सम्यक्त्वोत्पत्ति' से दर्शनमोह को उपशमाकर प्रथम सम्यक्त्व की उत्पत्ति को ग्रहण करना चाहिए (पु० १२, पृ०७६)। इन गाथासूत्रों का स्पष्टीकरण स्वयं मूलग्रन्थकार ने गद्यसूत्रों द्वारा किया है।' ग्यारह गुणश्रेणियों में होनेवाली प्रदेशनिर्जरा के गुणकार को स्पष्ट करते हुए सूत्रों में दर्शनमोह उपशामक के गुणश्रेणिगुणकार को सबसे स्तोक कहा गया है (सत्र ४,२,७,१७५)। इसकी व्याख्या में धवला में कहा है कि दर्शनमोह उपशामक के प्रथम समय में निर्जरा को प्राप्त द्रव्य सबसे स्तोक होता है। उसके दूसरे समय में निर्जीर्ण द्रव्य उससे असंख्यातगुणा होता है । तीसरे समय में निर्जीर्ण द्रव्य उससे असंख्यातगुणा होता है। इस क्रम से उस दर्शनमोह उपशामक के अन्तिम समय तक वह उत्तरोत्तर असंख्यातगुणा होता गया है । सूत्र में इस गुणकार की पंक्ति को 'गुणश्रेणि' कहा है । अभिप्राय यह है कि यद्यपि सम्यक्त्वोत्पत्ति का यह गुणश्रेणि गुणकार सबसे महान् है, फिर भी आगे कहे जानेवाले जघन्य गुणकार की अपेक्षा भी वह स्तोक है। धवलाकार ने आगे भी प्रसंगप्राप्त इन सूत्रों का अभिप्राय सष्ट किया है। वेदनाभावविधान-चूलिका २ इस चूलिका में अविभागप्रतिच्छेदप्ररूपणा आदि बारह अनुयोगद्वारों के आश्रय से अनुभागबन्धाध्यवसानस्थानों के कार्यभूत अनुभागस्थानों की प्ररूपणा की गयी है। यहां अविभागप्रतिच्छेदप्ररूपणा के प्रसंग में धवला में अविभागप्रतिच्छेद, वर्ग, वर्गणा और स्पर्धकों की प्ररूपणा संदृष्टिपूर्वक हुई है । यहीं अविभागप्रतिच्छेदों के आधारभूत परमाणुओं की भी, प्ररूपणाप्ररूपणाप्रमाण, श्रेणि, अवहार, भागाभाग और अल्पबहुत्व इन छह अनुयोगद्वारों के आश्रयसे की गयी है (पु० १२, पृ० ८८-१११)। क्रमप्राप्त स्थान, प्ररूपणा आदि अन्य अनुयोगद्वारों के विषय का भी आवश्यकतानुसार धवला में निरूपण है। विशेष रूप से 'षट्स्थानप्ररूपणा' नामक छठे अनुयोगद्वार के प्रसंग में सूत्र में जो यह निर्देश है कि 'अनन्तगुणपरिवृद्धि सब जीवों से वृद्धिंगत होती है' (सूत्र ४,२,७,२१३-१४) उसका स्पष्टीकरण धवला में बहुत विस्तार से हुआ है। सर्वप्रथम वहां इस सूत्र के द्वारा अन्तरोपनिधा की प्ररूपणा के साथ इसी सूत्र के द्वारा देशामर्शक भाव से परम्परोपनिधा की प्ररूपणा की १. सूत्र ४,२,४,७४ व उसकी धवला टीका (यहाँ धवलाकार ने उन ग्यारह गुणश्रेणियों का पृथक्-पृथक् उल्लेख भी कर दिया है) पु० १०, पृ० २६५-६६ २. सूत्र ४,२,७,१७५-७६; पु० १२, पृ० ८०-८७ ver / पदमडागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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