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________________ सूचनापूर्वक धवला में प्रसंगवश गणित प्रक्रिया के आधार से संदृष्टियों के साथ अनेक प्रासंगिक विषयों की विस्तार से चर्चा की है । वेदनाभावविधान- चूलिका ३ इस चूलिका में एकस्थान जीव प्रमाणानुगम आदि आठ अनुयोगद्वार हैं । उनके अन्तर्गत विषय का परिचय 'मूलग्रन्थगत विषयपरिचय' में संक्षेप में कराया जा चुका है । प्रसंगानुसार धवला में भी जहाँ-तहाँ उसका विवेचन है । ८. वेदनाप्रत्ययविधान मूल ग्रन्थ में ज्ञानावरणादि के जिन प्राणातिपात आदि प्रत्ययों का यहाँ निर्देश किया गया ह, धवला में उन सूत्रों के प्रसंग में उनके स्वरूप आदि का स्पष्टीकरण है; अधिक व्याख्येय वहाँ कुछ रहा नहीं है ।' ९. वेदनास्वामित्वविधान यह 'वेदना' अधिकार के अन्तर्गत सोलह अनुयोगद्वारों में नौवां है । यहाँ सर्वप्रथम जिस सूत्र द्वारा इस 'वेदनास्वामित्वविधान' का स्मरण कराया गया है उसकी व्याख्या के प्रसंग में धवला में यह शंका उठायी गयी है कि जिस जीव ने जिस कर्म को बाँधा है उसकी वेदना का स्वामी वही होगा, यह उपदेश बिना भी जाना जाता है, इसलिए इस वेदनास्वामित्वविधान को प्रारम्भ नहीं करना चाहिए। समाधान में धवलाकार ने स्पष्ट किया है कि कर्मस्कन्ध जिससे उत्पन्न हुआ है वह यदि वहीं स्थित रहता तो वही उसकी वेदना का स्वामी हो सकता था, परन्तु ऐसा नहीं है, क्योंकि कर्मों की उत्पत्ति किसी एक से सम्भव नहीं हैं। आगे कहा गया है कि कर्मों की उत्पत्ति केवल जीव से ही सम्भव नहीं है, क्योंकि वैसा होने पर कर्मों से रहित सिद्धों से भी उनकी उत्पत्ति का प्रसंग प्राप्त होता है । यदि एक मात्र अजीव से भी उनकी उत्पत्ति स्वीकार की जाय तो यह भी उचित नहीं है, क्योंकि वैसा स्वीकार करने पर जीव से भिन्न काल, पुद्गल और आकाश से भी उनकी उत्पत्ति का प्रसंग प्राप्त होता है । इसी प्रकार परस्पर के समवाय से रहित जीव अजीवों से भी उनकी उत्पत्ति मानना उचित नहीं है, क्योंकि उस परिस्थिति में समवाय से रहित सिद्ध जीव और पुद्गलों से भी कर्मों के उत्पन्न होने का प्रसंग प्राप्त होता है । परस्पर संयोग को प्राप्त जीव और अजीव से भी वे उत्पन्न नहीं हो सकते, क्योंकि वैसा होने पर संयोग को प्राप्त हुए जीव और पुद्गलों से उनके उत्पन्न होने का प्रसंग प्राप्त होता है । यदि कहा जाय कि समवाय को प्राप्त जीव और अजीव से वे उत्पन्न हो सकते हैं तो यह कथन भी ठीक नहीं है, क्योंकि उस परिस्थिति में अयोगिकेवली के भी कर्मबन्ध का प्रसंग प्राप्त होता है। कारण यह है कि वे कर्म से समवाय को प्राप्त हैं ही। इससे सिद्ध होता है कि मिध्यात्व, असंयम, कषाय और योग इनके उत्पन्न करने में समर्थ पुद्गलद्रव्य और जीव ये दोनों कर्मबन्ध के कारण हैं । आगे यह भी कहा गया है कि यह जीव और पुद्गल का बन्ध प्रवाहरूप से अनादि है, १. धवला पु० १२, पृ० २७५-६३ Jain Education International षट्खण्डागम पर टीकाएँ / ४६५ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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