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________________ क्योंकि इसके बिना अमूर्त जीव और मूर्त पुद्गल का बन्ध घटित नहीं होता। इस प्रकार प्रवाहस्वरूप से अनादि होकर भी वह बन्धविशेष की अपेक्षा सादि व सान्त भी है । कारण यह कि इसके बिना एक ही जीव में उत्पन्न देवादि पर्यायों के सदा अवस्थित रहने का प्रसंग अनिवार्य प्राप्त होनेवाला है। अतः दो, तीन अथवा चार कारणों से उत्पन्न होकर जीव में एक स्वरूप से स्थित वेदना उनमें एक के ही होती है, अन्य के नहीं होती है; यह नहीं कहा जा सकता है । इस प्रकार शिष्य के सन्देह को दूर करने के लिए इस 'वेदनास्वामित्वविधान' को प्रारम्भ करना उचित ही है (पु० १२, पृ० २६४-६५)। आगे मूल सूत्रों में जो वेदना की स्वामित्वविषयक प्ररूपणा की गयी है उसमें धवलाकार ने सूत्रों के अभिप्राय को ही प्रायः स्पष्ट किया है, विशेष वर्णनीय विषय वहाँ कुछ नहीं है। १०. वेदनावेदनाविधान ____ 'वेद्यते वेदिष्यते इति वेदना' अर्थात् जिसका वर्तमान में अनुभव किया जा रहा है व भविष्य में अनुभव किया जानेवाला है उसका नाम वेदना है, इस निरुक्ति के अनुसार आठ प्रकार के कर्मपुद्गलस्कन्ध को वेदना कहा गया है । 'वेदनावेदनाविधान' में जो दूसरा वेदना शब्द है उसका अर्थ अनुभवन है। 'विधान' का अर्थ प्ररूपणा है । तदनुसार प्रकृत अनुयोगद्वार में वर्तमान और भविष्य में जो कर्म का वेदन या अनुभवन होता है, इसकी प्ररूपणा की गयी है । इस प्रकार धवला में वेदनावेदनाविधान अनुयोगद्वार की सार्थकता प्रकट की गयी है। सूत्रकार ने नैगमनय को अपेक्षा समस्त कर्म को 'प्रकृति' कहा है (सूत्र ४,२,१०,२) । इसकी व्याख्या में धवलाकार ने कहा है कि बद्ध, उदीर्ण और उपशान्त के भेद से जो तीन प्रकार का समस्त कर्म अवस्थित है वह नैगमनय की अपेक्षा प्रकृति है, क्योंकि प्रक्रियते अज्ञानादिकं फलमनया आत्मन इति प्रकृतिः' इस निरुक्ति के अनुसार जो आत्मा के अज्ञानादिरूप फल को किया करता है उसका नाम प्रकृति है। यहां धवला में यह शंका उठायी गयी है कि जो कर्मपुद्गल फलदाता के रूप से परिणत है वह उदीर्ण कहलाता है। जो कार्मण पुद्गलस्कन्ध मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग के आश्रय से कर्मरूपता को प्राप्त हो रहा है उसे बध्यमान कहते हैं। इन दोनों अवस्थाओं से रहित कर्मपुद्गलस्कन्ध को उपशान्त कहा जाता है। इनमें उदीर्ण को 'प्रकृति' नाम से कहना संगत है, क्योंकि वह फलदाता के रूप से परिणत है। किन्तु बध्यमान और उपशान्त तो 'प्रकृति' नहीं हो सकते, क्योंकि वे फलदाता के स्वरूप से परिणत नहीं हैं। समाधान में धवलाकार ने कहा है कि ऐसी आशंका करना उचित नहीं है, क्योंकि 'प्रकृति' शब्द तीनों कालों में सिद्ध होता है। इस प्रकार जो कर्मस्कन्ध वर्तमान में फल देता है और जो आगे फल देनेवाला है उन दोनों कर्मस्कन्धों की प्रकृतिरूपता सिद्ध है । अथवा जिस तरह उदीर्ण कर्मस्कन्ध वर्तमान में फल देता है उसी तरह बध्यमान और उपशान्त कर्मस्कन्ध भी वर्तमान काल में फल देते हैं; क्योंकि उन दोनों अवस्थाओं के बिना कर्म का उदय सम्भव नहीं है। इसके अतिरिक्त उत्कृष्ट स्थितिसत्त्व और उत्कृष्ट अनुभाग के होने पर तथा उत्कृष्ट रूप में उन स्थिति और अनुभाग का बन्ध होने पर भी सम्यक्त्व, संयम और संयमासंयम का ग्रहण सम्भव नहीं है । इससे भी बध्यमान और उपशान्त कर्मस्कन्ध का वर्तमान में फल देना सिद्ध होता है। ४६६ / षट्खण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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