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________________ अन्य प्रकार से भी उपर्युक्त शंका का समाधान करते हुए आगे धवला में कहा गया हैअथवा नैगमनय भूत और भविष्यत् पर्यायों को वर्तमान के रूप में स्वीकार करता है इसलिए इस नय की अपेक्षा उन तीनों प्रकार के कर्मस्कन्धों को 'प्रकृति' कहा गया है। (पु० १२, पृ० ३०२-४) इस वेदनावेदनविधान के प्रसंग में सामान्य से सूत्रों में इस प्रकार निर्देश है- (१) नंगमनय की अपेक्षा ज्ञानावरणीयवेदना कथंचित् बध्यमान वेदना है । (२) कथंचित् वह उदीर्ण वेदना है। (३) कथंचित् उपशान्त वेदना है । (४) कथंचित् बध्यमान वेदनाएं हैं। (५) कथंचित् उदीर्ण वेदनाएँ हैं। (६) कथंचित् उपशान्त वेदनाएं हैं । (७) कथंचित् बध्यमान और उदीर्ण वेदना है। (6) कथंचित् बध्यमान (एक) व उदीर्ण (अनेक) वेदनाएँ हैं । (8) कथंचित् बध्यमान (अनेक) और उदीर्ण (एक) वेदना है । (१०) कथंचित् बध्यमान (अनेक) और उदीर्ण (अनेक) वेदनाएँ हैं। (सूत्र ४,२,१०,३-१२) धवला में इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार किया गया है-१. एक जीव की एक समय में बांधी ग यी एक प्रकृति कथंचित् बध्यमान वेदना है । २. एक जीव की एक समय में बांधी गयी एक प्रकृति कथंचित् उदीर्ण वेदना है। ३. एक जीव की एक समय में बांधी गयी एक प्रकृति कथंचित् उपशान्त वेदना है। ४ (१) एक जीव की एक समय में बांधी गयी अनेक प्रकृतियाँ कथंचित् बध्यमान वेदनाएं हैं। ४ (२) अनेक जीवों के द्वारा एक समय में बांधी गयी एक प्रकृति कथंचित् बध्यमान वेदना है। ४ (३) अनेक जीवों के द्वारा एक समय में बांधी गयी अनेक प्रकृतियां कथंचित् बध्यमान वेदनाएँ हैं। ५ (१) एक जीव की अनेक समयों में बांधी गयी एक प्रकृति कथंचित् उदीर्ण वेदना है। ५ (२) एक जीव की एक समय में बांधी गयी अनेक प्रकृतियां कथंचित् उदीर्ण वेदनाएँ हैं । ५ (३) एक जीव की अनेक समयों में बाँधी गयी अनेक प्रकृतियाँ कथंचित उदीर्ण वेदनाएँ हैं। ५ (४) अनेक जीवों की एक समय में बांधी गयी एक प्रकृति कथंचित् उदीर्ण वेदना है। ५ (५) अनेक जीवों की अनेक समयों में बांधी गयी एक प्रकृति कथंचित् उदीर्ण वेदना है। ५ (६) अनेक जीवों को अनेक प्रकृतियाँ एक समय में बांधी गयी कथंचित् उदीर्ण वेदनाएँ हैं। ५ (७) अनेक जीवों की अनेक प्रकृतियाँ अनेक समयों में बांधी गयी कथंचित उदीर्ण वेदनाएँ हैं । इत्यादि। इस पद्धति से धवलाकार ने जीव, प्रकृति और समय इनकी एक व अनेक की विवक्षा से प्रसंगानुसार एकसंयोगी, द्विसंयोगी और त्रिसंयोगी अनेक भंगों को स्पष्ट किया है तथा प्रस्तारों को प्रकट करके उनके कुछ उच्चारणक्रम को भी व्यक्त किया है। यह प्ररूपणा यहाँ धवला में सूत्र कार के अभिप्रायानुसार नैगम-व्यवहारादि नयों की विवक्षा से आठों कर्मों के विषय में की गयी है।' ११. वेदनागतिविधान इस अनुयोगद्वार में वेदनास्वरूप ज्ञानावरणादि कर्मों की गति-स्थिर-अस्थिरता-के विषय में विचार हुआ है। प्रकृत अनुयोगद्वार का स्मरण करानेवाले प्रथम सूत्र की व्याख्या के प्रसंग में धवला में यह १. इसे पीछे 'मूलग्रन्थगत-विषयपरिचय' में देखा जा सकता है। षट्खण्डागम पर टीकाएँ । ४६७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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