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________________ शंका उठायी गयी है कि कर्म सब जीवप्रदेशों में समवाय को प्राप्त हैं तब वैसी अवस्थाओं में उनके गमन को कैसे योग्य माना जा सकता है।। ___ इस शंका का समाधान करते हुए धवला में कहा गया है कि यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि योग के वश जीवप्रदेशों का संचार होने पर उनसे अपृथग्भूत कर्मस्कन्धों के संचार में किसी प्रकार का विरोध नहीं है। प्रस्तुत 'वेदनागतिविधान' अनुयोगद्वार की प्ररूपणा की आवश्यकता क्यों हुई, इसे स्पष्ट करते हुए धवलाकार ने कहा है कि यदि कर्मप्रदेश स्थित होते हैं तो जीव के देशान्तर को प्राप्त होने पर उसे सिद्धों के समान हो जाना चाहिए, क्योंकि समस्त कर्मों का वहाँ अभाव रहनेवाला है । कारण यह है कि स्थित स्वभाववाले होने से पूर्वसंचित कर्म तो वहीं रह गये हैं. जहाँ जीव पूर्व मे था, उनका जीव के साथ यहाँ देशान्तर में आना सम्भव नहीं रहा । वर्तमानकाल में कर्मों का संचय हो सके, यह भी सम्भव नहीं है; क्योंकि कर्मसंचय के कारणभूत जो मिथ्यात्वादि प्रत्यय हैं वे भी कर्मों के साथ वहीं स्थित रह गये, अतः उनकी यहाँ सम्भावना नहीं है । अतः कर्मों को स्थित मानना युक्तिसंगत नहीं है। __ यदि उन कर्मस्कन्धों को अनवस्थित माना जाय तो वह भी उचित न होगा, क्योंकि उस परिस्थिति में सब जीवों की मुक्ति का प्रसंग प्राप्त होता है। आगे कहा गया है कि विवक्षित समय के पश्चात् द्वितीय समय में कर्मों का अस्तित्व रहनेवाला नहीं है, क्योंकि अनवस्थित होने के कारण वे प्रथम समय में निर्मूल नष्ट हो चुके हैं। उत्पन्न होने के प्रथम समय में ही वे फल देते हैं, यह भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि बन्ध के प्रथम समय में कर्मों का विपाक सम्भव नहीं है। अथवा यदि बँधते समय उनका विपाक माना जाय तो कर्म और कर्म का फल दोनों का एक समय में सद्भाव रहकर द्वितीयादि समयों में बन्ध की सत्ता नहीं रहेगी, क्योंकि उस समय बन्ध के कारभूत मिथ्यात्व आदि प्रत्ययों का और कर्मों के फल का अभाव है। ऐसी परिस्थिति में सब जीवों की मुक्ति हो जाना चाहिए । पर ऐसा नहीं है, क्योंकि वैसा पाया नहीं जाता। इससे यदि कर्मप्रदेशों को अवस्थित और अनवस्थित उभयस्वरूप स्वीकार किया जाय तो यह भी संगत न होगा, क्योंकि वैसा मानने पर जो पृथक्-पृथक् दोनों पक्षों में दोष दिये गये हैं उनका प्रसंग अनिवार्यतः प्राप्त होगा। इस प्रकार से पर्यायाथिक नय का आश्रय लेनेवाले शिष्य के लिए जीव और कर्म के परतन्त्रतारूप सम्बन्ध को तथा जीवप्रदेशों के परिस्पन्द का कारण योग ही है यह जतलाने के लिए 'वेदनागतिविधान' की प्ररूपणा गयी है (पु० १२, पृ० ३६४-६५) । ___ यहाँ सूत्र में कहा गया है कि नगम, व्यवहार और संग्रह नय की अपेक्षा ज्ञानावरणीयवेदना कथंचित् 'अस्थित है (सूत्र ४,२,११,२)। इसकी व्याख्या में धवला में कहा गया है कि राग, द्वेष व कषाय के वश अथवा वेदना, भय व मार्गश्रम से जीवप्रदेशों का संचार होने पर उनमें समवाय को प्राप्त कर्मप्रदेशों का भी संचार पाया जाता है। पर जीवप्रदेशों में वे कर्मप्रदेश स्थित ही रहते हैं, क्योंकि पूर्व के देश को छोड़कर देशान्तर में स्थित जीवप्रदेशों में समवाय को प्राप्त कर्मस्कन्ध पाये जाते हैं। सूत्र में प्रयुक्त १. सूत्र में यहाँ 'अवट्ठिदा' पाठ है, पर वह प्रसंग व सूत्र की व्याख्या को देखते हुए अशुद्ध हो गया प्रतीत होता है। ४६८/ षट्कण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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