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'स्यात्' शब्द के उच्चारण से वह जाना जाता है। कारण कि जिस प्रकार वे देश में अस्थित हैं उसी प्रकार यदि उन्हें जीवप्रदेशों में भी अस्थित माना जायेगा तो पूर्वोक्त दोष (मुक्तिप्राप्ति.) का प्रसंग प्राप्त होनेवाला है।
इस पर यह शंका उठी है कि मध्यवर्ती आठ जीवप्रदेशों में संकोच-विकोच नहीं होता, ऐसी स्थिति में उनमें स्थित कर्मप्रदेशों की अस्थिरता सम्भव नहीं है । तब फिर सूत्र में जो यह कहा गया है कि किसी भी काल में सब जीवप्रदेश अस्थित रहते हैं, वह घटित नहीं होता। इसके समाधान में वहां कहा गया है कि उन मध्यवर्ती आठ जीवप्रदेशों को छोड़कर शेष जीवप्रदेशों के आश्रय से यह सूत्र प्रवृत्त हुआ है, इसलिए उक्त दोष सम्भव नहीं है। यह विशेष अभिप्राय सूत्र में प्रयुक्त उस 'स्यात्' शब्द से सूचित है।
उपर्युक्त नैगम, व्यवहार और संग्रह इन तीन नयों की अपेक्षा ज्ञानावरणीयवेदना कथंचित स्थित-अस्थित भी है (सूत्र ४,२,११,३)। ___ इस सूत्र का अभिप्राय स्पष्ट करते हुए धवला में कहा गया है कि व्याधि, वेदना और भय आदि के क्लेश से रहित छमस्थ जीव के जो जीवप्रदेश संचार से रहित होते हैं उनमें स्थित कर्मप्रदेश भी स्थित (संचार से रहित) ही होते हैं। वहीं पर कुछ जीवप्रदेशों में संचार भी पाया जाता है, इससे उनमें स्थित कर्मस्कन्ध भी संचार को प्राप्त होते हैं, इसलिए उन्हें अस्थित कहा जाता है । और उन दोनों ही प्रकार के कर्मस्कन्धों के समुदाय का नाम वेदना है, इसी कारण उसे स्थित-अस्थित दो स्वभाववाली कहा जाता है।
यहाँ यह शंका उत्पन्न हुई है कि जो जीवप्रदेश अस्थित हैं उनके कर्मबन्ध भले ही हो, क्योंकि वे योग से सहित होते हैं । किन्तु जो जीवप्रदेश स्थित होते हैं उनके कर्मबन्ध सम्भव नहीं है, क्योंकि उनमें योग का अभाव है । कारण यह कि स्थित जीवप्रदेशों में हलन-चलन नहीं होता है। यदि हलन-चलन से रहित जीवप्रदेशों में योग का सद्भाव स्वीकार किया जाता है तो सिद्धों के भी सयोग होने का प्रसंग प्राप्त होता है ।
इस शंका के समाधान में कहा गया है कि मन, वचन और काय की क्रिया उत्पन्न करने में जो जीव का उपयोग होता है उसका नाम योग है और वह कर्मबन्ध का कारण है । वह योग थोड़े से जीवप्रदेशों में नहीं होता है, क्योंकि एक जीव में प्रवृत्त हुए योग के थोड़े से ही अवयवों में रहने का विरोध है, अथवा एक जीव में उसके खण्ड-खण्ड स्वरूप से प्रवृत्त होने का विरोध है । इससे स्थित जीवप्रदेशों में कर्मबन्ध होता है, यह जाना जाता है । इसके अतिरिक्त योग के आश्रय से नियमतः जीवप्रदेशों में परिस्पन्दन होता है ऐसा भी नहीं है; क्योंकि उसकी उत्पत्ति नियत नहीं है। और वैसा नियम हो भी नहीं, ऐसा भी नहीं है । हाँ, यह नियम अवश्य है कि यदि वह परिस्पन्दन होता है तो योग से ही होता है। इसलिए स्थित जीवप्रदेशों में भी योग का सद्भाव रहने से कर्मबन्ध को स्वीकार करना चाहिए (पु० १२, पृ० ३६६-६७)। ___ इसी पद्धति से सूत्रकार द्वारा आगे उन तीन नगमादि नयों की अपेक्षा दर्शनावरणीयादि अन्य सात कर्मों का तथा ऋजुसूत्र और शब्द नयों की अपेक्षा ज्ञानावरणीयादि आठों कर्मवेदनाओं की स्थित-अस्थितरूपता का विचार किया गया है, जो 'मूलग्रन्थगत विषय-परिचय' से जाना जा सकता है। १२. वेदना-अन्तरविधान
इस प्रसंग में धवला में बन्ध के दो भेदों अमन्तरबन्ध और परम्पराबन्ध का निर्देश करते
पदन्तानम पर टीकाएं | Vee
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