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हुए यह बतलाया है कि कार्मण वर्गणारूप से स्थित पुद्गलस्कन्ध मिथ्यात्वादि कारणों से कर्मरूप से परिणत होने के प्रथम समय में अनन्तरबन्धरूप होते हैं । कारण यह है कि कार्मणवर्गणारूप पर्याय के परित्याग के अनन्तर समय में ही वे कर्मरूप पर्याय से परिणत हो जाते हैं। बन्ध होने के दूसरे समय से लेकर जो कर्मपुद्गलस्कन्धों का और जीवप्रदेशों का बन्ध होता है उसका नाम परम्पराबन्ध है (पु० १२, पृ० ३७०)।
__ आगे तदुभयबन्ध के प्रसंग में धवलाकार ने कहा है कि बन्ध, उदय और सत्त्वरूप से स्थित कर्मपुद्गलों के वेदन की प्ररूपणा 'वेदनावेदनविधान' में की जा चुकी है, इसलिए इन सूत्रों का यह अर्थ नहीं है, अतः इन सूत्रों के अर्थ की प्ररूपणा की जाती है, यह कहते हुए धवलाकार ने यह स्पष्ट किया है कि अनन्तानन्त ज्ञानावरणीयरूप कर्मस्कन्ध परस्पर में सम्बद्ध होकर जो स्थित होते हैं, वह अनन्तरबन्ध है । इसी प्रकार सम्बन्ध से रहित एक-दो आदि परमाणुओं के शानावरणस्वरूप होने का प्रतिषेध किया गया है । आगे कहा है कि वे ही अनन्तरबद्ध परमाणु जब ज्ञानावरणीयरूपता को प्राप्त हो जाते हैं तब परम्पराबन्धरूप ज्ञानावरणीय-वेदना भी होती है, इसके ज्ञापनार्थ दूसरे सूत्र (४,२,१२,३) की प्ररूपणा की गयी है । अनन्तानन्त कर्मपुद्गलस्कन्ध परस्पर में सम्बद्ध होकर शेष कर्मस्कन्धों से असम्बद्ध रहते हुए जीव के द्वारा जब दूसरों के साथ सम्बन्ध को प्राप्त होते हैं तब उन्हें परम्पराबन्ध कहा जाता है। ये भी ज्ञानवरणीयवेदनारूप होते हैं, यह अभिप्राय समझना चाहिए । एक जीव के आश्रित सभी ज्ञानावरणीयरूप कर्मपुद्गलस्कन्ध परस्पर में समवेत होकर ज्ञानावरणीयवेदना होते हैं; इस एकान्त का निराकरण हो जाता है। १३. वेदनासंनिकर्षविधान
यहां संनिकर्ष का स्वरूप स्पष्ट करते धवला में कहा है कि द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव इन चारों में प्रत्येक पद उत्कष्ट और जघन्य के भेद से दो प्रकार का है। इनमें से किसी एक को विवक्षित करके शेष पद क्या उत्कृष्ट हैं, अनुत्कृष्ट हैं, जघन्य हैं या अजघन्य हैं, इसकी जो परीक्षा की जाती है उसका नाम संनिकर्ष है। वह स्वस्थानसंनिकर्ष और परस्थानसंनिकर्ष के भेद से दो प्रकार का है । इनमें एक कर्म को विवक्षित करके जो उक्त द्रव्यादि पदों की परीक्षा की जाती है उसे स्वस्थानसंनिकर्ष कहा जाता है । आठों कर्मों के आश्रय से जो उक्त प्रकार से परीक्षा की जाती है वह परस्थानसंनिकर्ष कहलाता है । यथा
जिसके द्रव्य की अपेक्षा ज्ञानावरणीयवेदना उत्कृष्ट होती है उसके वह ज्ञानावरणीयवेदनाक्षेत्र की अपेक्षा नियम से अनुत्कृष्ट व असंख्यातगुणी हीन होती है। काल की अपेक्षा वह उत्कृष्ट भी होती है और अनुत्कृष्ट भी। इसी प्रकार भाव की अपेक्षा वह उसके उत्कृष्ट भी होती है और अनुत्कृष्ट भी, इत्यादि ।' यह स्वस्थानसंनिकर्ष का उदाहरण है। परस्थानसंनिकर्ष का उदाहरण
जिसके ज्ञानावरणीयवेदना द्रव्य की अपेक्षा उत्कृष्ट होती है उसके आयु को छोड़ शेष छह कर्मों की वेदना उत्कृष्ट भी होती है और अनुत्कृष्ट भी होती है, इत्यादि ।
१. सूत्र ४,२,१३,६-१४ व उनकी धवला टीका। २. सूत्र ४,२,१३,२२०-२२ व उनकी टीका ।
५०./ षट्माण्डागम-परिशीलन
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