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________________ दर्शन आदि को सचित्तनोकर्मद्रव्य भाव कहा गया है । अचित्त नोकर्मद्रव्यभाव दो प्रकार का हैमर्तद्रव्यभाव और अमूर्तद्रव्यभाव । इनमें वर्ण-गन्धादि को मूर्तद्रव्यभाव और अवगाहना आदि को अमूर्तद्रव्यभाव कहा है। उपर्युक्त भाव के उन भेद-प्रभेदों में यहाँ कर्मद्रव्यभाव को अधिकारप्राप्त कहा गया है, क्योंकि अन्य भावों का वेदना से सम्बन्ध नहीं है (पु० १२, पृ० १-३)। वेदनाद्रव्यविधान आदि के समान इस अनुयोगद्वार में भी पदमीमांसा, स्वामित्व और अल्पबहुत्व इन तीन अनुयोगद्वारों का निर्देश है । पदमीमांसा के प्रसंग में धवलाकार ने प्रकृत पृच्छामूत्र और उत्तरसूत्र (३-४) दोनों को देशामर्शक कहकर सूत्रनिर्दिष्ट उत्कृष्टादि चार पृच्छाओं के साथ सादि व अनादि आदि अन्य नौ पृच्छाओं को सूत्रसूचित कहा है । इस प्रकार पूर्व पद्धति के अनुसार यहाँ भी उन्होंने समस्त तेरह पच्छाओं को उभावित कर यथाक्रम से उनका समाधान किया है। स्वामित्व अनुयोगद्वार में सूत्रकार के द्वारा भाव की अपेक्षा जो ज्ञानावरणादि को की वेदना की प्ररूपणा की गयी है उसमें अधिक कुछ व्याख्येय नहीं रहा है, इसीलिए धवलाकार ने प्रसंगप्राप्त सूत्रों के अन्तर्गत पदों की सार्थकता को प्रकट करते हुए उनका अभिप्राय ही स्पष्ट किया है। ___ अल्पबहत्व अनुयोगद्वार में भी विशेष व्याख्येय विषय न रहने से सूत्रों का अभिप्राय ही स्पष्ट किया गया है। विशेषता यहाँ यह रही है कि सूत्रकार ने जिस अल्पबहुत्व की प्ररूपणा प्रथमतः दुरूह गाथासूत्रों में और तत्पश्चात् उसी को स्पष्ट करते हुए गद्यसूत्रों में भी की है। धवलाकार ने उससे सूचित उत्तरप्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभागविषयक स्वस्थान अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की है। इसी प्रकार से आगे सूत्रकार ने चौंसठ पदवाले जिस जघन्य परस्थान अल्पबहत्व की प्ररूपणा की है, धवलाकार ने उससे सूचित स्वस्थान अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की है (पु० १२ पृ० ७५-७८)। घेदनाभावविधान-चूलिका १ प्रकृत वेदनाभावविधान में जो तीन चूलिकाएँ हैं उनमें प्रथम चूलिका में सूत्रकार ने प्रथमतः दो गाथासत्रों द्वारा निर्जीर्यमाण प्रदेश और काल की विशेषतापूर्वक सम्यक्त्वोपत्ति आदि ग्यारह गणश्रेणियों की प्ररूपणा की है (गाथासूत्र ७-८, पु० १२, पृ० ७५-७८)। इन सूत्रों की व्याख्या के प्रसंग में धवला में प्रथमतः यह शंका उपस्थित हुई है कि भावविधान की प्ररूपणा के प्रसंग में ग्यारह गुणश्रेणियों में प्रदेशनिर्जरा और उसके काल की प्ररूपणा किस लिए की जा रही है । समाधान में धवलाकार ने कहा है कि विशुद्धियों के द्वारा जो अनुभाग का क्षय होता है, उससे होनेवाली प्रदेश निर्जरा का ज्ञापन कराते हुए यह प्रकट किया गया है कि जीव और कर्मों के सम्बन्ध का कारण अनुभाग ही है। इसी अभिप्राय को १. गाथासूत्र १,२,३ व गद्यसूत्र ६५-११७ (पु० १२, पृ० ४०-५६) २. धवला पु० १२, पृ० ६०-६२ ३. गाथासूत्र ४-६, गद्यसूत्र ११८-७४ (पु० १२, पृ० ६२-७५) षट्खण्डागम पर टीकाएँ/४९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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