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________________ कर्मबन्ध के भेद से दो प्रकार का निर्दिष्ट किया गया है। इनमें कर्मबन्ध को स्थगित करके दूसरे नोकर्मबन्ध के इन पांच भेदों का निर्देश किया है-आलापनबन्ध, अल्लीवनबन्ध, संश्लेषबन्ध, शरीरबन्ध और शरीरीबन्ध । इनमें आलापनबन्ध के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए आगे कहा गया है कि लोहा, रस्सी, वभ्र अथवा दर्भ आदि अन्य द्रव्य के निमित्त से जो शकट, यान, युग, गड्डी, गिल्ली, रथ, स्यन्दन, शिविका, गृह, प्रासाद, गोपुर और तोरण इनके तथा और भी जो इस प्रकार के हैं उन सबके बन्ध को आलापनबन्ध कहा जाता है । कटक, कुड्ड, गोवरपीढ, प्राकार, शाटिका तथा और भी जो इस प्रकार के द्रव्य हैं, जिनका अन्य द्रव्यों से अल्लीवित होकर बन्ध होता है वह सब ही अल्लीवनबन्ध कहलाता है । परस्पर में संश्लेष को प्राप्त काष्ठ और लाख का जो बन्ध होता है उसका नाम संश्लेशबन्ध है (३८-४३)। ___ प्रयोग का अर्थ जीव का व्यापार है, इस जीवव्यापार से जो बन्ध उत्पन्न होता है उसे प्रयोगबन्ध कहते हैं। वह पाँच प्रकार का है-आलापनबन्ध, अल्लीवनबन्ध, संश्लेषबन्ध, शरीरबन्ध और शरीरीबन्ध । लोहा, रस्सी, चमड़ा और लकड़ी आदि के आश्रय से जो उनसे भिन्न गाड़ी, रथ व जहाज आदि अन्य द्रव्यों का बन्ध होता है उसे आलापनबन्ध कहा जाता है। तत्त्वार्थवार्तिक में इसका उल्लेख आलपनबन्ध के नाम से किया गया है। वहाँ 'लपि' धातु का अर्थ आकर्षण क्रिया किया गया है।' लेपनविशेष से जड़े या जोड़े गये द्रव्यों का जो परस्पर बन्ध होता है उसका नाम अल्लीवन बन्ध है, जैसे-चटाई, भीत व वस्त्र आदि का बन्ध । आलापन बन्ध में जहाँ गाड़ी आदि में लोहे या लकड़ी आदि की कीलें उनसे भिन्न रहती हैं वहाँ इस बन्ध में कीलों आदि के समान द्रव्य नहीं रहते । जैसे-ईटों व मिट्टी (गारा) आदि के लेप से बननेवाली भीत आदि, तथा तन्तुओं के परस्पर बुनने से बननेवाला वस्त्र । तत्त्वार्थवार्तिक में इसका उल्लेख आलेपनबन्ध के नाम से किया गया है। संश्लेषबन्ध काष्ठ और लाख आदि चिक्कन-अचिक्कन द्रव्यों का होता है। आलापनबन्ध में जैसे कीलें आदि भिन्न द्रव्य रहती हैं तथा अल्लीवनबन्ध में जैसे-इंट व मिट्ठी व आदि के साथ पानी भी रहता है, क्योंकि उसके विना लेप नहीं होता; इस प्रकार से इस बन्ध में न कीलों आदि के समान कुछ पृथक् द्रव्य रहते हैं और न अल्लीवन बन्ध के समान पानी आदि का उपयोग इसमें होता है, इससे यह संश्लेषबन्ध उन दोनों से भिन्न है। शरीरबन्ध को औदारिकशरीरबन्ध आदि के भेद से पांच प्रकार का निर्दिष्ट किया गया है। आगे उनके यथा सम्भव एक दो तीन के संयोग से १५ भेद का भी उल्लेख किया गया है। जैसे-औदारिक-औदारिक-शरीरबन्ध, औदारिक-तेजसशरीरबन्ध, औदारिक-कार्मणशरीरबन्ध, औदारिक-तैजस-कार्मणशरीरबन्ध, वैक्रियिक-वैक्रियिक-शरीरबन्ध, आदि (४४-६०)। जीव प्रदेशों का अन्य जीवप्रदेशों के साथ तथा पाँच शरीरों के साथ जो बन्ध हैं उसे शरीरी बन्ध कहते हैं। वह शरीरीबन्ध सादिशरीरीबन्ध और अनादिशरीरीबन्ध के भेद से दो प्रकार का है। इनमें सादिशरीरीबन्ध को शरीरबन्ध के समान जानना चाहिए। जोव के आठ मध्यप्रदेशों का जो परस्पर में बन्ध है उसका नाम अनादिशरीरीबन्ध है। आगे पूर्व में स्थगित किए गए कर्मबन्ध के विषय में यह सूचना कर दी गई है कि उसकी १. इन सब शब्दों को धवला में स्पष्ट किया गया है। पु० १४, पृ० ३८-३६ १२० / पाण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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