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धवलाकार ने इसका दूसरा अर्थ करके संगति बैठायी है । यथा --- -पूर्व में 'मादा' का अर्थ सदृशता और 'वेमादा' का अर्थ सदृशता से रहित ( विसदृशता ) किया गया है। अब यहाँ 'मादा' (मात्रा) का अर्थ श्रविभागप्रतिच्छेद और 'वे' का अर्थ दो संख्या किया गया है । तदनुसार अभिप्राय यह हुआ कि स्निग्ध पुद्गल दो अविभागप्रतिच्छेदों से अधिक अथवा दो अविभागप्रतिच्छेदों से हीन अन्य स्निग्ध पुद्गलों के साथ बन्ध को प्राप्त होते हैं, तीन आदि अविभागप्रतिच्छेदों से अधिक अथवा हीन अन्य स्निग्ध पुद्गलों के साथ वे बन्ध को प्राप्त नहीं होते ।
इस अर्थ का निर्णय आगे एक अन्य गाथा -सूत्र (३६) द्वारा किया गया है।
इस प्रकार यहाँ परमाणु- पुद्गलों के बन्धविषयक दो मत स्पष्ट हैं। प्रथम मत के अनुसार स्निग्धता अथवा रूक्षता से सदृश (स्निग्ध-स्निग्ध या रूक्ष- रूक्ष ) परमाणुओं में बन्ध नहीं होता है । किन्तु दूसरे मत के अनुसार स्निग्धता और रूक्षता से सदृश और विसदृश दोनों ही प्रकार के पुद्गलपरमाणुओं में परस्पर बन्ध होता है । विशेष इतना है उन्हें स्निग्धता और रूक्षता के प्रविभाग प्रतिच्छेदों में दो-दो से अधिक अथवा हीन होना चाहिए। उदाहरण के रूप में
दो गुण (भाग) स्निग्ध परमाणु का चार गुण स्निग्ध अन्य परमाणु के साथ बन्ध होता है । इसी प्रकार दो गुण स्निग्ध परमाणु का चार गुण रूक्ष परमाणु के साथ भी बन्ध होता है । दो गुण स्निग्ध का तीन गुण व पाँच गुण आदि किसी भी स्निग्ध- रूक्ष परमाणुओं के साथ बन्ध सम्भव नहीं है, उन्हें दो-दो गुणों से ही अधिक होना चाहिए । इसी प्रकार तीन गुण स्निग्ध का पाँच गुण स्निग्ध अथवा रूक्ष परमाणुत्रों के साथ बन्ध सम्भव है । इसी प्रकार से आगे चार गुण स्निग्ध या रूक्ष का छह गुणस्निग्ध अथवा रूक्ष परमाणुओं में परस्पर बन्ध होता है । यह अवश्य है कि जघन्य गुण ( सबसे हीन प्रविभागप्रतिच्छेद युक्त) पुद्गल परमाणु का किसी भी अवस्था में अन्य परमाणु के साथ बन्ध नहीं होता । यह दूसरा मत तत्त्वार्थसूत्र (५,३२-३६ ) व उसकी व्याख्या स्वरूप सर्वार्थसिद्धि एवं तत्त्वार्थवार्तिक में उपलब्ध होता है । '
आगे इस सादि विस्रसाबन्ध के विषय में अनेक उदाहरण देते हुए यह स्पष्ट किया गया है कि क्षेत्र, काल, ऋतु, अयन (दक्षिणायन - उत्तरायन) और पुद्गल के निमित्त से उपर्युक्त बन्ध परिणाम को प्राप्त होकर जो अभ्र, मेघ, सन्ध्या, विद्य ुत्, उल्का, कनक (अशनि), दिशादाह, धूमकेतु और इन्द्रायुध के रूप में बन्धनपरिणाम से परिणत होते हैं; इस सबको सादि - विस्रसाबन्ध कहा जाता है। इसी प्रकार के अन्य भी जो स्वभावतः उस प्रकार के बन्धनपरिणाम से परिणत होते हैं उनके उस बन्ध को सादि - विस्रसाबन्ध समझना चाहिए (३७) । *
आगे पूर्व में स्थगित किये गए प्रयोगबन्ध की प्ररूपणा करते हुए उसे कर्मबन्ध और नो
१. इस प्रसंग में तत्त्वार्थवार्तिक में षट्खण्डागम के अन्तर्गत वर्गणाखण्ड का उल्लेख भी इस प्रकार किया गया है-स पाठो नोपपद्यते । कुतः ? श्रार्षविरोधात् । एवं हि उक्तमार्षे वर्गणायां बन्धविधाने नोआगमद्रव्यबन्धविकल्पे सादि- वैस्रसिकबन्ध निर्देशः प्रोक्तः । विषमरूक्षतायां च बन्धः समरूक्षतायां च भेदः इति । तदनुसारेण च सूत्रमुक्तं 'गुणसाम्ये सदृशानाम्' इति" । --- त० वा० ५,१६,४ पृ० २४२
२. तत्त्वार्थवार्तिक ५,२४,१३, पृ० २३२
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मूलग्रन्थगत विषय का परिचय / ११६
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