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किया गया इसी प्रकार उक्त क्रोधादि के सर्वथा क्षय को प्राप्त हो जाने पर जो जीवभाव उत्पन्न होते हैं उनके साथ क्षायिक सम्यक्त्व, क्षायिक चारित्र तथा क्षायिक दान - लाभ आदि ( नौ क्षायिक लब्धियाँ) एवं अन्य भी इसी प्रकार के जीवभावों को क्षायिक अविपाक प्रत्ययिक जीवभावबन्ध कहा गया है। विवक्षित कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न होनेवाले एकेन्द्रियलब्धि आदि विविध प्रकार के जीवभावों को तदुभयप्रत्ययिक जीवभावबन्ध निर्दिष्ट किया गया है (१६-१६) ।
अजीवभावबन्ध भी तीन प्रकार का है- विपाकप्रत्ययिक अजीवभावबन्ध, अविपाकप्रत्ययिक अजीवभावबन्ध और तदुभयप्रत्ययिक अजीवभावयन्ध । इनमें प्रयोगपरिणत वर्ण व शब्द आदिकों को विपाकप्रत्ययिक अजीवभावबन्ध और विस्रसापरिणत वर्ण व शब्द आदिकों nt अविपाकप्रत्ययिक अजीव-भावबन्ध कहा गया है । प्रयोगपरिणत स्कन्धगत वर्णों के साथ जो विसापरिणत स्कन्धों के वर्णों का संयोग या समवाय रूप सम्बन्ध होता है उसे तदुभयप्रत्ययिक अजीव - भावबन्ध कहा गया है । इसी प्रकार शब्द व गन्ध आदि को भी तदुभय प्रत्ययिक अजीव भावबन्ध जानना चाहिए (२०-२३) ।
आगे पूर्व में जिस द्रव्यबन्ध को स्थगित किया गया था उसकी प्ररूपणा करते हुए उसके ये दो भेद निर्दिष्ट किये गये हैं- आगमद्रव्यबन्ध और नो- आगमद्रव्यबन्ध । इनमें आगमद्रव्यबन्ध के स्वरूप को पूर्व पद्धति के अनुसार दिखलाकर नो-आगमद्रव्य-बन्ध के ये दो भेद निर्दिष्ट किये गये हैं- प्रयोगबन्ध और विस्रसाबन्ध । इनमें प्रयोग बन्ध को स्थगित कर विस्रसाबन्ध
सादि और अनादि के भेद से दो प्रकार का कहा गया है। इनमें भी सादि विस्रसाबन्ध को स्थगित कर अनादि विस्रसाबन्ध के तीन भेद निर्दिष्ट किये गये हैं—-धर्मास्तिक, अधर्मास्तिक और आकाशास्ति । इनमें भी प्रत्येक तीन प्रकार का है। जैसे -- धर्मास्तिक, धर्मास्तिक देश और धर्मास्तिक प्रदेश । अधर्मास्तिक और आकाशास्तिक के भी इसी प्रकार से तीन भेद निर्दिष्ट किये गये हैं । इन तीनों ही अस्तिकायों का परस्पर में प्रदेशबन्ध होता है (२४-३१) ।
अनादि विस्रसाबन्ध का स्पष्टीकरण धवला में इस प्रकार किया गया है-धर्मास्तिकाय के अपने समस्त अवयवों के समूह का नाम धर्मास्तिक है । इस प्रकार अवयवी धर्मास्तिकाय का जो अपने अवयवों के साथ बन्ध है उसे धर्मास्तिक बन्ध कहा जाता है । उसके अर्धभाग से लेकर चतुर्थ भाव तक का नाम धर्मास्तिक देश है, उन्हीं धमास्तिक देशों का जो अपने अवयवों के साथ बन्ध है वह धमास्तिक देशबन्ध कहलाता है । उसी के चौथे भाग से लेकर जो अवयव हैं उनका नाम प्रदेश और उनके पारस्परिक बन्ध का नाम धर्मास्तिक प्रदेशबन्ध है । इसी प्रकार का अभिप्राय अधर्मास्तिक और आकाशास्तिक के विषय में रहा है। इन तीनों ही अस्तिकायों के प्रदेशों का जो परस्पर में बन्ध है उस सबका नाम अनादिविस्रसाबन्ध है । कारण यह कि ये तीनों द्रव्य अनादि व प्रदेशों के परिस्पन्द से रहित हैं । इसीलिए उनका बन्ध अनादि होकर स्वाभाविक है ।
अब यहाँ जिस सादि विस्रसाबन्ध को पूर्व में स्थगित किया गया था उसकी प्ररूपणा करते हुए विसदृश स्निग्धता और विसदृश रूक्षता को बन्ध—बन्ध का कारण — कहा गया है तथा समान स्निग्धता और समान रूक्षता को भेद - असंयोग का कारण कहा गया है ( ३२-३३) ।
इन दो सूत्रों का स्पष्टीकरण आगे एक गाथा - सूत्र (३४) के द्वारा करते हुए "वेमादाद्धिदा मादा ल्हुक्खदा बंधो" इस सूत्र (३२) को पुनः उपस्थित किया गया है ।
११८ / षट्खण्डागम-परिशीलन
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