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________________ प्ररूपणा 'कर्म' अनुयोगद्वार के समान जानना चाहिए (६१-६४)। इस प्रकार यहाँ बन्ध अनुयोगद्वार समाप्त हुआ है। २. बन्धक-यहाँ प्रारम्भ में 'जो बन्धक हैं उनका यह निर्देश है' ऐसी सूचना करते हुए गति-इन्द्रिय आदि चौदह मार्गणाओं का नामोल्लेख किया गया है । तत्पश्चात् यह कहा गया है कि गतिमार्गणा के अनुवाद से नरकगति में नारकी बन्धक हैं, तियंच बन्धक हैं, देव बन्धक हैं, मनुष्य बन्धक भी हैं और अबन्धक भी हैं, सिद्ध अबन्धक हैं। इस प्रकार क्षुद्रकबन्ध के अन्तर्गत ग्यारह अनुयोगद्वारों को यहां प्ररूपणा करना चाहिए। इसी प्रकार आगे महादण्डकों की प्ररूपणा करना चाहिए (६५-६७) । बन्धक जीव हैं । उन बन्धक जीवों की प्ररूपणा क्षुद्रकबन्ध नाम के दूसरे खण्ड में 'एक जीव की अपेक्षा स्वामित्व' आदि ग्यारह अनुयोगद्वारों में विस्तार से की गई है । ग्रन्थकर्ता ने यहाँ उसकी ओर संकेत करते हुए यह कहा है कि बन्धकों की प्ररूपणा जिस प्रकार क्षुद्रकबन्ध में की गई है उसी प्रकार यहाँ उनकी प्ररूपणा करना चाहिए । यहाँ ऊपर जो ६५-६६ ये दो सूत्र कहे गये हैं वे क्षुद्रकबन्ध में उसी रूप में अवस्थित हैं ।' विशेषता यह रही है कि यहाँ ६६वें सूत्र में 'सिद्धा अबंधा' के आगे प्रसंगवश ‘एवं खुद्दाबंधएक्कारसमणियोगद्दारं यव्यं' इतना और निर्देश कर दिया गया है तथा उसके पश्चात् ६७वें सूत्र में 'एवं महादंडया यव्या" इतनी और भी सूचना कर दी गई है । इस सूचना के साथ इस बन्धक अनुयोगद्वार को समाप्त कर दिया गया है। ३. बन्धनीय–यहाँ सर्वप्रथम 'बन्धनीय' को स्पष्ट करते हुए यह कहा गया है कि जिनका वेदन या अनुभवन किया जाता है वे वेदनास्वरूप पुद्गल स्कन्धरूप हैं, और वे स्कन्ध वर्गणास्वरूप हैं । 'बन्धनीय' से यहाँ वर्गणाएँ अभिप्रेत हैं। इस प्रकार यहां इस 'बन्धनीय' अनुयोगद्वारों में २३ प्रकार की वर्गणाओं को वर्णनीय सूचित किया गया है (६८)। __तदनुसार उन वर्गणाओं की यहाँ विस्तार से प्ररूपणा की गई है। इसी कारण से इस खण्ड के अन्तर्गत पूर्वोक्त स्पर्श, कर्म और प्रकृति इन तीन अनुयोगद्वारों के साथ बन्ध और बन्धक अधिकारों को भी गौण करके इन बन्धनीय वर्गणाओं की प्रमुखता से इस पांचवें खण्ड का वर्गणा नाम प्रसिद्ध हुआ है। चौथे अधिकारस्वरूप बन्धविधान की प्ररूपणा महाबन्ध नामक आगे के छठे खण्ड में विस्तार से की गई है। ___ इस प्रकार यहाँ प्रारम्भ में उन वर्णनीय वर्गणाओं के परिज्ञान में प्रयोजनीभूत · होने से इन आठ अनुयोगद्वारों को ज्ञातव्य कहा गया है-वर्गणा, वर्गणाद्रव्यसमुदाहार, अनन्तरोपनिधा, परम्परोपनिधा, अवहार, यवमध्य, पदमीमांसा और अल्पबहुत्व । इनमें जो प्रथम वर्गणा अनुयोगद्वार है उसमें ये १६ अनुयोगद्वार हैं-वर्गणानिक्षेप, वर्गणानयविभाषणता, वर्गणाप्ररूपणा, वर्गणानिरूपणा, वर्गणाध्र वाध्र वानुगम, वर्गणासान्त रनिरन्तरानुगम, वर्गणाप्रोज युग्मानुगम, वर्गणाक्षेत्रानुगम, वर्गणास्पर्शनानुगम, वर्गणाकालानुगम, वर्गणा-अन्तरानुगम, वर्गणाभावानुगम, वर्गणा-उपनयनानुगम, वर्गणापरिमाणानुगम, वर्गणाभागाभागानुगम और वर्गणा-अल्पबहुत्व (६६-७०)। १. सूत्र २, १, १-७ (पु ७, पृ० १-८) २. 'क्षद्रकबन्ध' के अन्त में पु० ५७५-६४ में महादण्डक भी है। मूलग्रन्थगत विषय का परिचय | १२१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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