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________________ बीस प्रकार की प्ररूपणा की जाती है' ऐसी प्रतिज्ञा करते हुए उसके बीस भेदों का उल्लेख प्रथमतः संक्षेप में गाथासूत्र के द्वारा और तत्पश्चात् उन्हीं का पृथक्-पृथक् विवरण गद्यात्मक सूत्र के द्वारा किया गया है। वे २० भेद ये हैं-पर्यायावरणीय, पर्यायसमासावरणीय, अक्षराबरणीय, अक्षरसमासावरणीय, पदावरणीय, पदसमासावरणीय, संघातावरणीय, संघातसमासावरणीय, प्रतिपत्तिावरणीय, प्रतिपत्तिसमासावरणीय, अनुयोगद्वारावरणीय, अनुयोगबारसमासावरणीय, प्राभृतप्राभृतावरणीय, प्राभृतप्राभृतसमासावरणीय, प्राभृतावरणीय, प्राभृतसमासावरणीय, वस्तुआवरणीय, वस्तुसमासावरणीय, पूर्वावरणीय और पूर्वसमासावरणीय (४७-४८)। उपर्युक्त बीस प्रकार के श्रुतज्ञानावरणीय के द्वारा आद्रियमाण अक्षर व अक्षर-समास मादि बीस प्रकार के श्रुतज्ञान की प्ररूपणा धवला में विस्तार से की गई है।' आगे 'उसी श्रुतज्ञानावरणीय की अन्य प्ररूपणा हम करेंगे' ऐसी प्रतिज्ञा करते हुए श्रुतज्ञान के इन इकतालीस पर्याय-शब्दों का निर्देश किया गया है-(१) प्रावचन (२) प्रवचनीय, (३) प्रवचनार्थ, (४) गतियों में मार्गणता, (५) आत्मा, (६) परम्परालब्धि, (७) अनुत्तर, (८) प्रवचन, (६) प्रवचनी, (१०) प्रवचनाद्धा, (११) प्रवचन संनिकर्ष, (१२) नय विधि, (१३) नयान्तरविधि, (१४) भंगविधि, (१५) भंगविधिविशेष, (१६) पृच्छाविधि, (१७) पृच्छाविधिविशेष, (१८) तत्त्व, (१६) भूत, (२०) भव्य, (२१) भविष्यत्, (२२) अवितथ (२३) अविहत, (२४) वेद, (२५) न्याय्य, (२६) शुद्ध, (२७) सम्यग्दृष्टि, (२८) हेतुवाद, (२९) नयवाद, (३०) प्रवरवाद, (३१) मार्गवाद, (३२) श्रुतवाद, (३३) परवाद, (३४) लौकिकवाद, (३५) लोकोत्तरीयवाद, (३६) अग्र्य, (३७) मार्ग, (३८) यथानुमार्ग, (३६) पूर्व, (४०) यथानुपूर्व और (४१) पूर्वातिपूर्व (४६-५०)। धवला में यहां यह शंका की गई है कि सूत्रकार श्रुतज्ञानावरणीय के समानार्थक शब्दों की प्ररूपणा करने की प्रतिज्ञा कर रहे हैं, पर प्ररूपणा आगे श्रुतज्ञान के समानार्थक शब्दों की की जा रही है, यह क्या संगत है ? इस आशंका का निराकरण करते हुए वहाँ यह कहा गया है कि यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि आवरणीय (श्रुतज्ञान) की प्ररूपणा का अविनाभाव उसके आवरण के स्वरूप के ज्ञान के साथ है। प्रकारान्तर से वहाँ यह भी कहा गया है कि अथवा 'आवरणीय' शब्द कर्मकारक में सिद्ध हुआ है, अत: 'श्रुतज्ञानावरणीय' से श्रुतज्ञान का ग्रहण हो जाता है। आगे धवला में इन पर्याय शब्दों का भी निरुक्तिपूर्वक पृथक्-पृथक् अर्थ प्रकट किया गया है। आगे क्रम प्राप्त अवधिज्ञानावरणीय की प्ररूपणा के प्रसंग में उसकी कितनी प्रकृतियाँ हैं, इसे स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि अवधिज्ञानावरणीय की असंख्यात प्रकृतियाँ हैं । वह अवधिज्ञान भवप्रत्यय और गणप्रत्यय के भेद से दो प्रकार का है। इनमें भवप्रत्यय अवधिज्ञान देवों व नारकियों के होता है तथा गुणप्रत्यय तिर्यंच व मनुष्यों के। आगे इस अवधिज्ञान को अनेक प्रकार का कहकर उसके इन भेदों का उल्लेख किया गया है-देशावधि, परमावधि, सर्वावधि, हीयमान, वर्धमान, अवस्थित, अनवस्थित, अनुगामी, अननुगामी, सप्रतिपाती, अप्रतिपाती, एक क्षेत्र और अनेक क्षेत्र (५१-५६) । १. पु. १३, पृ० २६०-७६ २. पु० १३, पृ० २८०-८६ ११२ / षट्लण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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