SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 292
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ यहाँ 'भंते' यह संबोधन किसके लिए किया गया है तथा 'वत्तइस्सामि' क्रिया का कर्ता कौन है, यह विचारणीय है । पूर्व प्रक्रिया को देखते हुए उपर्युक्त वाक्य का प्रयोग कुछ असंगत- . सा दिखता है। यहां यह स्मरणीय है कि इसके पूर्व जिस प्रकार ष० ख० में उस अल्पबहुत्व को पृथक् पृथक् गति-इन्द्रिय आदि चौदह मार्गणाओं में दिखलाया गया है उसी प्रकार प्रज्ञापना में भी उसे उसके पूर्व पूर्वनिर्दिष्ट दिशा व गति आदि २७ द्वारों में पृथक्-पृथक् दिखलाया गया है।' तत्पश्चात् प० ख० और प्रज्ञापना दोनों में ही इस महादण्डक द्वारा सब जीवों में सम्मिलित रूप से उस अल्पबहुत्व को प्रकट किया गया है । ष० ख० के टीकाकार वीरसेनाचार्य ने इस महादण्डक को क्षुद्रकबन्ध खण्ड के अन्तर्गत ११ अनुयोगद्वारों की चूलिका कहा है। तदनुसार प्रजापना में प्ररूपित उस महादण्डक को भी यदि पूर्वनिर्दिष्ट उन दिशा आदि २६ अनुयोग की चूलिका कहा जाय तो वह असंगत न होगा। अब यहाँ संक्षेप में दोनों ग्रन्थगत इस प्रसंग की समानता को प्रकट किया जाता है"सव्वत्थोवा मणुसपज्जत्ता गब्भोवक्कंतिया । मणुसणीओ संखेज्जगुणाओ।" -ष०ख०, सूत्र २,११-२,२-३ "सव्वत्थोवा गब्भवक्कंतिया मणुस्सा। मणुस्सीओ संखेज्जगुणाओ।" -प्रज्ञापना १, पृ० १०६ १० ख० में इसके आगे मनुष्यणियों से सर्वार्थसिद्धि विमानवासी देवों को संख्यातगुणे, उनसे बादर तेजस्कायिक पर्याप्तकों को असंख्यातगुणे और उनसे अनुत्तर-विजयादि विमान वासी देवों को असंख्यातगुणे कहा गया है। प्रज्ञापना में आगे सर्वार्थसिद्धिविमानवासी देवों का उल्लेख न करके मनुष्यणियों से बादर तेजस्कायिक पर्याप्तकों को असंख्यातगुणे और उनसे अनुत्तरोपपादिक देवों को असंख्यातगुणे कहा गया है । इस प्रकार यहाँ प्रज्ञापना में एक (सर्वार्थसिद्धि) स्थान कम हो गया है। आगे जाकर ष०ख० में अनुदिशविमानवासी देवों को अनुत्तर विमानवासी देवों से संख्यातगुणे कहा गया है। प्रज्ञापना में इस स्थान का उल्लेख नहीं है, क्योंकि श्वेताम्बर सम्प्रदाय में नौ अनुदिश विमानों का अस्तित्व स्वीकार नहीं किया गया है। आगे ष० ख० में जहाँ उपरिम-उपरिम आदि नौ ग्रैवेयकों में पृथक्-पृथक् नौ स्थानों में उस अल्पबहुत्व का निर्देश किया गया है वहाँ प्रज्ञापना में उपरिम, मध्यम व अधस्तन इन तीन अवेयकों का ही उल्लेख है। इस प्रकार ष०ख० में यहाँ तक १५ स्थान होते हैं, किन्तु प्रज्ञापना में आठ (१+१+६) स्थानों के कम हो जाने से ७ स्थान ही उस अल्पबहुत्व के रहते हैं। इसी प्रकार आगे १६ व १२ कल्पों के मतभेद के कारण भी उस अल्पबहुत्व के स्थानों में १. १० ख० सूत्र १-२०५ (पु० ७, पृ० ५२०-७४ तथा प्रज्ञापना सूत्र २१२-३३३ २. समत्तेसु एक्कारसअणिओगद्दारेसु किमट्ठमेसो महादंडओ वोत्तमाढत्तओ? वुच्चदे खुद्दाबंधस्स एक्कारस अणिओगद्दारणिबद्धस्स चूलियं काऊण महादंडओ वुच्चदे । (पु० ७, पृ० ५७५) २३८ / षट्खण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy