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________________ संखेज्जगुणाओ । सिद्धा अणंतगुणा । तिरिक्खा अणंतगुणा।" -ष०ख०, सूत्र २,११,७-१५ (पु० ७) "एतेसिं णं भंते ! नेरइयाणं . . . 'अट्ठ गति समासेणं कतरे कतरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सव्वत्थोवाओ मणुस्सीओ १, मणुस्सा असंखेज्जगुणा २, नेरइया असंखेज्जगुणा ३, तिरिक्खजोणिणीओ असंखेज्जगुणाओ ४, देवा असंखेज्जगुणा ५, देवीओ संखेज्जगुणाओ ६, सिद्धा अणंतगुणा ७, तिरिक्ख जोणिया अणंतगुणा ८ ।" -प्रज्ञापना सूत्र २२६ (३) "इंदियाणुवादेण सव्वत्थोवा पंचिदिया । चउरिदिया विसेसाहिया । तीइंदिया विसेसाहिया । बीइंदिया विसेसाहिया । अणिदिया अणंतगुणा । एइंदिया अणंतगुणा।" -ष०ख०, सूत्र २,११,१६-२१ (पु० ७) "एतेसि णं भंते ! सइंदियाणं एइंदियाणं .....? गोयमा ! सव्वत्थोवा पंचिंदिया १, चरिदिया विसेसाहिया २, तेइंदिया विसेसाहिया ३, बेइंदिया विसेसाहिया ४, अणिदिया अणंतगुणा ५, एइंदिया अणंतगुणा ६ ।" -प्रज्ञापना सूत्र २२७ इस प्रकार दोनों ग्रन्थगत उपर्युक्त तीनों सन्दर्भ क्रमबद्ध व शब्दशः समान हैं। इतना विशेष है कि ष० ख० में जहाँ देवों को तिर्यंचयोनिमतियों से संख्यातगुणा कहा गया है वहाँ प्रज्ञापना में उन्हें उन तिथंच योनिमतियों से असंख्यातगुणा कहा गया है । । दूसरी विशेषता यह है कि इन्द्रियाश्रित इस अल्पबहुत्व की प्ररूपणा में ष० ख० में सामान्य तिर्यंचों को नहीं ग्रहण किया है, पर प्रज्ञापना में आगे सामान्य तियंचों को भी ग्रहण करके उन्हें एकेन्द्रियों से विशेष अधिक कहा गया है। यहाँ यह विशेष ध्यान देने योग्य है कि ष० ख० में जीवस्थान खण्ड के अन्तर्गत जो दूसरा द्रव्यप्रमाणानुगम अनुयोगद्वार है उसमें गुणस्थान सापेक्ष गति-इन्द्रियादि मार्गणाओं में जीवों की संख्या की प्ररूपणा की गई है तथा आगे उसके दूसरे क्षुद्रकबन्ध खण्ड के अन्तर्गत पाँचवें द्रव्य प्रमाणानुगम अनुयोगद्वार में भी गुणस्थान निरपेक्ष उन गति-इन्द्रियादि मार्गणाओं में जीवों की संख्या की प्ररूपणा है । संख्या की यह प्ररूपणा ही उक्त अल्पबहुत्व की प्ररूपणा का आधार रही है। पर जहाँ तक हम खोज सके हैं, प्रज्ञापना में कहीं भी उन जीवों की संख्या की प्ररूपणा नहीं की गई जिसे उक्त अल्पबहुत्व का आधार समझा जाय। ८. ष० ख० में उपर्युक्त अल्पबहुत्व अनुयोगद्वार के अन्त में 'महादण्डक' प्रकरण है । उसकी सूचना ग्रन्थकार द्वारा इस प्रकार की गई है "एत्तो सव्वजीवेसु महादंडओ कादश्वो भबदि।" -सूत्र २, ११-२,१ (पु०७) इसी प्रकार का 'महादण्डक' प्रज्ञापना में तीसरे 'बहवक्तव्य' पद के अन्तर्गत २७ द्वारों में अन्तिम है। उसकी सूचना वहाँ भी ग्रन्थकार द्वारा इन शब्दों में की गई है"अह भंते ! सव्वजीवप्पबहु महादंडयं वत्तइस्सामि।" -सूत्र ३३४ जोणिणीणमवहारकाले भागे हिदे संखेज्जरूवोवलंभादो।" -धवला पु० ७, पृ० ५२३ इसके अतिरिक्त यहीं पर 'महादण्डक' सूत्र ३६-४० में स्पष्टतया पंचेन्द्रियतिर्यंच योनिमतियों से वानव्यन्तर देवों को संख्यातगुणा कहा गया है। प्रज्ञापना में निर्दिष्ट उनका असंख्यातगुणत्व कैसे घटित होता है यह अन्वेषणीय है। षट्खण्डागम की अन्य ग्रन्थों से तुलना / २३७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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