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सव्वलोगे वा । मणुसअपज्जत्ता सत्थाणेण समुग्धादेण उववादेण केवडि खेत्ते ? लोगस्स असंखेज्जदिभागे।"
-ष ०ख०, सूत्र २,६, ८-१४ (पु० ७) 'कहिणं भंते ! मणुस्साणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता ? गोयमा ! अंतो मणुस्सखेत्ते पणतालीसजोयणसतसहस्सेसु अड्ढाइज्जेसु दीव-समुद्देसु पण्णरससु कम्मभूमीसु तीसाए अकम्मभूमीसु' छप्पण्णाए अंतरदीवेसू, एत्थ णं मणुस्साणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णेत्ता। उववाणं लोगस्स असंखेज्जइभागे समुग्घाएणं सव्वलोए, सट्ठाणेणं लोगस्स असंखेज्ज इभागे।
-प्रज्ञापना सूत्र १७६ इस प्रकार कुछ शब्द-साम्य के साथ दोनों ग्रन्थों का अभिप्राय समान है। विशेषता यह रही है कि ष० ख० में जहाँ सामान्य से लोक का असंख्यातवा भाग कहा गया है वहां पण्णवणा में उसके स्थान में विशेष रूप से मनुष्यक्षेत्र व अढाई द्वीप-समुद्रों आदि का निर्देश किया गया है जो लोक के असंख्यातवें भागरूप ही है। इसके अतिरिक्त ष० ख० में प्रतरसमुद्घातगत केवली को लक्ष्य करके 'लोक के असंख्यात बहुभागों' (असंखेज्जेसु वा भाएसु) का जो उल्लेख किया गया है वह प्रज्ञापना में उपलब्ध नहीं है ।
७. १० ख० के प्रथम खण्ड जीवस्थान के अन्तर्गत सत्प्ररूपणादि आठ अनुयोगद्वारों में जो अन्तिम अल्पबहुत्व अनुयोगद्वार है उसमें गुणस्थानों की प्रमुखता से क्रमशः गति आदि चौदह मार्गणाओं में विस्तारपूर्वक अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की गई है। गुणस्थानों की प्रमुखता के कारण यद्यपि उससे प्रज्ञापना में प्ररूपित अल्पबहुत्व की विशेष समानता नहीं है फिर भी उसके दूसरे खण्ड क्षुद्रकबन्ध के अन्तर्गत ग्यारह अनुयोगद्वारों में जो अन्तिम अल्पबहुत्व अनुयोगद्वार है उसमें गुणस्थानों की अपेक्षा न करके यथाक्रम से केवल गति-इन्द्रियादि मार्गणाओं में भी उस अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की गई है। उससे प्रज्ञापना में प्ररूपित अल्पबहुत्व की अधिक समानता है। इसके लिए यहाँ एक-दो उदाहरण दे-देना ठीक होगा।
(१) "अप्पाबहुगाणुगमेण गदियाणुवादेण पंच गदीओ समासेण । सव्वत्थोवा मणुसा। णेरइया असंखेज्जगुणा । देवा असंखेज्जगुणा । सिद्धा अणंतगुणा । तिरिक्खा अणंतगुणा।"
-ष०ख०, सूत्र २, ११,१-६ (पु० ७) "एएसि णं भंते ! नेरइयाणं तिरिक्खजोणियाणं......? गोयमा ! सव्वत्थोवा मणुस्सा १, नेरइया असंखेज्जगुणा २, देवा असंखेज्जगुणा ३, सिद्धा अणंतगुणा ४, तिरिक्खजोणिया अणंतगुणा ५।"
__---प्रज्ञापना सूत्र २२५ (२) "अट्ट गदीओ समासेण । सव्वत्थोवा मणुस्सिणीओ । मणुस्सा असंखेज्जगुणा । णेरइया असंखेज्जगुणा । पंचिदियतिरिक्खजोणिणीओ असंखेज्ज गुणाओ । देवा संखेज्जगुणा । देवीओ
१. १० ख० में अढाई द्वीप-समुद्रों व पन्द्रह कर्मभूमियों का उल्लेख सूत्र १,६-८,११ (पु०६)
में तथा कम्मभूमि और अकम्मभूमि शब्दों का उपयोग सूत्र ४,२, ६,८ (पु० ११, पृ०
८८) में हुआ है। २. यहाँ ष०ख० सूत्र ३,६,८-१४ व उनकी धवला टीका द्रष्टव्य है (पु० ११, पृ. ८८-११६)। ३. धवलाकार ने देवों के इस गंखेज्जगुणत्व की संगति इस प्रकार बैठायी है-"एत्थ गुणगारो तप्पाओग्गसंखेज्जरूवाणि। कुदो ? देवअवहारकालेण तेत्तीसरूवगुणिदेण पंचिदियतिरिक्ख
(शेष पृष्ठ २३७ पर देखिए) २३६ / बट्लण्डागम-परिशीलन
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