________________
को दिखलाया गया है उसी प्रकार प्रज्ञापना के अन्तर्गत प्रथम 'प्रज्ञापना' पद में भी एकेन्द्रियादि जीवों के भेद-प्रभेदों को दिखलाया गया है। विशेषता यह रही है कि प्रज्ञापना में विवक्षित जीवों में उनके अन्तर्गत विविध जातिभेदों को भी प्रकट किया गया है, जिनका उल्लेख ष० ख० में नहीं है-यह पीछे वनस्पतिकायिक जीवों के प्रसंग में भी स्पष्ट किया जा चुका है। । दूसरा उदाहरण मनुष्यों का लिया जा सकता है। ष० ख० में आध्यात्मिक दृष्टि की प्रमुखता से उक्त सत्प्ररूपणा में मनुष्यगति के प्रसंग में मोक्ष-महल के सोपानस्वरूप चौदह गुणस्थानों में मिथ्यादृष्टि व सासादनसम्यग्दृष्टि आदि चौदह प्रकार के मनुष्यों का अस्तित्व प्रकट किया गया है। (सूत्र १,१, २७)
किन्तु प्रज्ञापना में मनुष्यजीव-प्रज्ञापना के प्रसंग में मनुष्यों के सम्मूर्च्छन व गर्भोपक्रान्तिक इन दो भेदों का निर्देश करते हुए उनके अन्तर्गत अनेक अवान्तर जाति-भेदों को तो प्रकट किया गया है, पर गुणस्थानों व उनके आश्रय से होनेवाले उनके चौदह भेदों का कोई उल्लेख नहीं है । (सूत्र ६२-१३८)
५. ष० ख० के दूसरे खण्ड क्षुद्रकबन्ध के अन्तर्गत जो ग्यारह अनुयोगद्वार हैं उनमें तीसरा ‘एक जीव की अपेक्षा कालानुगम' है । उसमें गति-इन्द्रियादि के क्रम से चौदह मार्गणाओं में जीवों के काल की प्ररूपणा है ।
उधर प्रज्ञापना के पूर्वोक्त ३६ पदों में चौथा 'स्थिति' पद है। उसमें नारक आदि विविध जीवों की स्थिति (काल) की प्ररूपणा है। दोनों ग्रन्थगत इस प्ररूपणा में बहुत कुछ समानता देखी जाती है । यथा
"एगजीवेण कालाणुगमेण गदियाणुवादेण णिरयगदीए णेरइया केवचिरं कालादो होंति ? जहण्णेण दसवाससहस्साणि। उक्कस्सेण तेत्तीसं साग रोवमाणि । पढमाए पुढवीए णेरइया केवचिरं कालादो होंति ? जहण्णण दसवाससहस्साणि । उक्कस्सेणं सागरोवमं ।"
-ष०ख०, सूत्र २,२,१-६ (पु०७) "नेरइयाणं भंते ! केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता ? गोयमा ! जहण्णेण दसवाससहस्साई, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई।.....रयणप्पभापुढविनेरइयाणं भंते ? केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता ? गोयमा ! जहण्णेणं दसवाससहस्साइं, उक्कोसेणं सागरोवमं ।”
-प्रज्ञापना सूत्र ३३५ [१] व ३३६ [१] इसी क्रम से आगे भी दोनों ग्रन्थों में अपनी-अपनी पद्धति से कुछ हीनाधिकता के साथ जीवों के काल की प्ररूपणा की गई है।
६. ष० ख० में इसी क्षुद्र कबन्ध खण्ड के अन्तर्गत उन ग्यारह अनुयोगद्वारों में से छठे और सातवें अनुयोगद्वारों में क्रम से जीवों के वर्तमान निवास (क्षेत्र) और कालत्रयवर्ती क्षेत्र (स्पर्शन) की प्ररूपणा गति-इन्द्रिय आदि मार्गणाओं के क्रम से की गई है ।
इसी प्रकार प्रज्ञापना में उन ३६ पदों के अन्तर्गत दूसरे 'स्थान' नामक द में बादर पृथिवीकायिकादि जीवों के स्थानों की प्ररूपणा कुछ अधिक विस्तार से की गई है। __दोनों ग्रन्थों की इस प्ररूपणा में बहुत कुछ समानता दिखती है। इसके लिए यहाँ एक उदाहरण दिया जाता है
"मणुसगदीए मणुसा मणुसपज्जत्ता मणुसिणी सत्थाणेण उववादेण केवडिखत्ते ? लोगस्स असंखेज्जदिभागे। समुग्घादेण केवडिखेत्ते ? लोगस्स असंखेज्जदिभागे । असंखेज्जेसु वा भाएसु
षट्खण्डागम को अन्य ग्रथों से तुलना / २३५
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org