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'संगहणिगाहा' ऐसा निर्देश करते हुए तीन (१५१-५३) गाथाओं को उद्धृत किया गया है।
(सूत्र १९४) ४. १० ख० में आगे पाँचवें वर्गणा खण्ड के अन्तर्गत 'बन्धन' अनुयोगद्वार में पुनः वह प्रसंग प्राप्त हुआ है। वहाँ शरीरिशरीर-प्ररूपणा के प्रसंग में प्रत्येकशरीर और साधारणशरीर जीवों का निर्देश करते हुए सात गाथासूत्रों (१२२-२८) द्वारा साधारणशरीर जीवों की विशेषता प्रकट की गयी है।'
__ इन गाथासूत्रों में तीन गाथाएँ (१२२-२४) ऐसी हैं जो प्रज्ञापना में भी विपरीत क्रम से उपलब्ध होती हैं। इनमें एक गाथा का पाठ कुछ भिन्न है । यथा
एयस्स अणुग्गहणं बहूण साहारणाणमेयस्स । एयस्स जं बहूणं समासदो तं पि होदि एयस्स ।।
--ष० ख० १२३ (पु० १४) एक्कस्स उ जं गहणं बहूण साहारणाण तं चेव ।
जं बहुयाणं गहणं समासओ तं पि एगस्स ॥ -प्रज्ञा० १०० प्रज्ञापनागत इस गाथा का पाठ ष०ख० की अपेक्षा सुबोध है।
इस प्रसंग में वहाँ एक गाथा धवला टीका में भी 'वुत्तं च' निर्देश के साथ इस प्रकार उद्धृत की गई है
बीजे जोणीभूवे जीवो वक्कमइ सो व अण्णो वा ।
जे वि य मूलादीया ते पत्तेया पढमदाए ॥ -पु० १४, पृ० २३२ यह गाथा आचारांगनियुक्ति (१३८) और दशवकालिक-नियुक्ति (२३२) में भी कुछ पाठभेद के साथ उपलब्ध होती है, जिसका उल्लेख पूर्व में किया जा चुका है।
उक्त गाथा 'प्रज्ञापना' (१७) में भी देखी जाती है। उसका पाठ आचारांग नि० के समान है।
इस गाथा के उत्तरार्ध का पाठ भेद विचारणीय है।
ष० ख० में इसी प्रसंग में आगे इतना विशेष कहा गया है कि ऐसे अनन्त जीव हैं जिन्होंने मिथ्यात्वादिरूप अतिशय भावकलंक से कलुषित रहने के कारण कभी त्रस पर्याय को प्राप्त नहीं किया है व जो निगोदवास को नहीं छोड़ रहे हैं । अनन्तर वहाँ एक निगोदशरीर में अवस्थित जीवों के द्रव्यप्रमाण का निर्देश करते हुए उसे अतीत काल में सिद्ध हुए जीवों से अनन्तगुणा कहा गया है।
'प्रज्ञापना' में इस प्रकार का उल्लेख कहीं भी दृष्टिगोचर नहीं हुआ।
इस प्रकार इन दोनों ग्रन्थों की वर्णन शैली के भिन्न होने पर भी जिस प्रकार ष० ख० के अन्तर्गत सत्प्ररूपणा अनुयोगद्वार में क्रम से गति-इन्द्रियादि मार्गणाओं में जीवों के भेद-प्रभेदों
१. ष०ख०, पु० १४, पृ० २२५-३३ २. इनमें पूर्व की दो गाथाएँ (१२२-२३) आचारांगनियुक्ति में भी उपलब्ध होती हैं । क्रम
उनका वहाँ ष० ख० के समान (१३६-३७) है। ३. पु० १४ पृ० २३३-३४; ये दोनों गाथाएँ मूलाचार के 'पर्याप्ति' अधिकार (१६२-६३) में
तथा दि० पंचसंग्रह में भी विपरीत क्रम (१-८५ व ८४) से उपलब्ध होती हैं ।
२३४ / षट्खण्डागम-परिशीलन
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