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उल्लेख किया गया वे गाथाएँ आचारांग निर्युक्ति में नहीं उपलब्ध होती हैं ।
दूसरी गाथा के समकक्ष एक गाथा प्रायः समान रूप में मूलाचार (५-१६) दि० पंचसंग्रह (१-८१) और जीवसमास (३४) में इस प्रकार उपलब्ध होती है
मूलग्ग-पोरबीजा कंदा तह खं दबीज-बीजरहा । संमुच्छिमा य भणिया पत्तेयाणंतकाया य ॥
प्रसंग में आचारांगनिर्युक्ति (१३८) में एक अन्य गाथा इस प्रकार
इसके आगे इसी उपलब्ध होती है
जीणिग्भूए बीए जीवो वक्कमइ सोव अण्णो वा । जो विय मूले जीवो सोच्चिय पत्ते पढमयाए । ' यह गाथा (सूत्र ५४, गा० ६७ ) प्रज्ञापना में भी उपलब्ध होती है ।
इसके अतिरिक्त आचारांगनियुक्ति में आगे ये दो गाथाएँ और भी देखी जाती हैं
गूढसिर-संधि समभंगमहीरुहं च छिण्णरहं । साहारणं सरीरं तब्बिवरीयं च पत्तेयं ।। १४० ।। सेवाल पणग किण्हग कवया कुहुणा य बायरो काओ ।
मव्वो य सुहुमकाओ सव्वत्थ जलत्थलागासे ॥ १४१ ॥
ये दोनों गाथाएँ 'मूलाचार' (५-१६ व १८) और 'जीवसमास' (३७ व ३६) में भी विपरीत क्रम से उपलब्ध होती हैं ।
'प्रज्ञापना' में ये दोनों गाथाएँ तो दृष्टिगोचर नहीं होतीं, किन्तु उपर्युक्त गाथा १४० में जो साधारणकाय की पहिचान तोड़ने पर 'समानभंग' निर्दिष्ट की गई है उसकी व्याख्यास्वरूप (भाष्यगाथात्मक) १० गाथाएँ ( सूत्र ५४, गा० ५६ - ६५ ) वहाँ अवश्य देखी जाती हैं । इसी प्रकार उक्त गाथा में आगे उसी साधारण शरीर की पहिचान 'अहीरुह — समच्छेद' शब्दान्तर से भी प्रकट की गई है। उसके विपरीत 'प्रज्ञापना' में प्रत्येकशरीर के स्वरूप को प्रकट करनेवाली १० गाथाओं (सूत्र ५४, गा० ६६-७५) में से एक में 'हीरो - विषमच्छेद' को ग्रहण कर उसके आधार से प्रत्येकशरीर को स्पष्ट किया गया है। इन गाथाओं को भी भाष्यगाथा जैसी समझना चाहिए ।
आगे 'प्रज्ञापना' में पर्याप्त जीवों के आश्रित अपर्याप्त जीवों की उत्पत्ति को दिखलाते हुए कहा है – “एएसि णं इमाओ गाहाओ अणुगंतव्वाओ । तं जहा ” — और फिर श्रागे तीन गाथाएँ (१०७ - १ ) और दी गई हैं ।
इस कथन इतना तो स्पष्ट है कि प्रज्ञापनाकार ने इन गाथाओं को कहीं अन्यत्र से उद्धृत किया है । पर किस ग्रन्थ से उन्हें उद्धृत किया है, यह अन्वेषणीय है । इन गाथाओं में कन्द आदि उन्नीस वनस्पति-भेदों को स्पष्ट किया गया है (सूत्र ५५ [३] ) । इनमें पूर्वोक्त आचारांग नियुक्ति (१४१ ) के अन्तर्गत 'सेवाल, पणग, किण्हग' ये भेद समाविष्ट हैं ।
ऐसा ही एक प्रसंग वहाँ आगे वानव्यन्तरों की स्थानप्ररूपणा में भी देखा जाता है । वहाँ
१. यह गाथा ‘“बीजे जोणी भूदे जीवो" इस रूप में 'वृत्तं च' कह कर धवला में उद्धृत की गई है । (पु० १४, पृ० २३२ ) ; इसी रूप में उसे गो० जीवकाण्ड (१८९) में आत्मसात् किया गया है ।
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षट्खण्डागम की अन्य ग्रन्थों से तुलना / २३३
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