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कदाचित् न रहने का उल्लेख किया गया है (४) उसी प्रकार आगे वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, आहारककाययोगी, आहारकमिश्र काययोगी (१), सूक्ष्मसाम्परायिक शुद्धिसंयत (१६), उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि (२१) जीवों के भी कदाचित् रहने और कदाचित् न रहने का उल्लेख किया गया है।
पूर्वोक्त मनुष्य अपर्याप्त और वैक्रियिकमिश्रकाययोगी आदि सात, इस प्रकार ये आठ सान्तरमार्गणायें निर्दिष्ट की गई हैं ! ५. द्रव्यप्रमाणानुगम
इस अनुयोगद्वार में गति-इन्द्रिय आदि उन चौदह मार्गणाओं में यथाक्रम से जीवों की संख्या का विचार किया गया है । यथा
द्रव्यप्रमाणानुगम से गतिमार्गणा के अनुसार नरक गति में नारकीजीव द्रव्यप्रमाण से कितने हैं, ऐसा प्रश्न उठाते हुए उसके स्पष्टीकरण में कहा गया है कि वे द्रव्यप्रमाण से असंख्यात हैं । काल की अपेक्षा वे असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणी-उत्सपिणियों से अपहृत होते हैं। क्षेत्र को अपेक्षा वे जगप्रतर के असंख्यातवें भाग मात्र असंख्यात जगश्रेणि प्रमाण हैं । उन जगश्रेणियों की विष्कम्भसूची सूच्यंगुल के द्वितीय वर्गमूल से गुणित उसी के प्रथम वर्गमूल प्रमाण हैं (१-६)। इस प्रकार सामान्य नारकियों की संख्या का उल्लेख करके आगे प्रथमादि पृथिवियों में वर्तमान नारकियों की संख्या का भी पृथक्-पृथक् उल्लेख किया गया है (७-१३)।
इसी प्रकार से आगे तिर्यंच आदि शेष तीन गतियों और इन्द्रिय-काय आदि शेष मार्गणाओं में भी जीवों की संख्या की प्ररूपणा की गई है । यहाँ सब सूत्र १६१ हैं । ६. क्षेत्रानुगम
इस अनयोगद्वार में गति-इन्द्रिय आदि चौदह मार्गणाओं में वर्तमान जीवों के वर्तमान निवास स्वरूप क्षेत्र की प्ररूपणा स्वस्थान, समुद्घात और उपपाद इन पदों के आश्रय से की गई है। यथा
गति मार्गणा के अनुसार नरक गति में नारकी स्वस्थान, समुद्घात और उपपाद की अपेक्षा कितने क्षेत्र में रहते हैं, इस प्रश्न के साथ यह स्पष्ट किया गया है कि वे इन तीन पदों की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग में रहते हैं। यही क्षेत्र पृथक्-पृथक् प्रथमादि सातों पृथिवियों में वर्तमान नारकियों का भी है (१-३)।।
स्वस्थान दो प्रकार का है-स्वस्थान-स्वस्थान और विहारवत्स्वथान । जीव जिस ग्रामनगरादि में उत्पन्न हुआ है उसी में सोना, बैठना व गमन आदि करना, इसका नाम स्वस्थान-स्वस्थान है। अपने उत्पन्न होने के ग्रामनगरादि को छोड़कर अन्यत्र सोने, बैठने एवं गमन आदि करने का नाम विहारवत्स्वस्थान है।
वेदना व कषाय आदि के वश आत्मप्रदेशों का बाहर निकलकर जाना, इसका नाम समुद्घात है । वह वेदना, कषाय, वैक्रियिक, मारणान्तिक, तैजस, आहारक और केवलिसमुद्घात के भेद से सात प्रकार का है। इनमें से प्रकृत में वेदना, कषाय वैक्रियिक और मारणान्तिक इन चार समघातों की विवक्षा रही है। कारण यह कि आहारकसमघात नारकियों के सम्भव नहीं है, क्योंकि वह ऋद्धि प्राप्त महर्षियों के ही होता है । केवलिसमुद्१. गो० जीवकाण्ड, १४२
१६ / षटखण्डागम-परिस
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