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है। उधर बृहट्टिप्पणिका में वीर निर्वाण से ६०० वर्ष के पश्चात् उस योनिप्राभूत के रचे जाने की सूचना की गई है। इस प्रकार वह धरसेनाचार्य के द्वारा पट्टकाल से १४ वर्ष पूर्व लिखा जा सकता है । इस प्रकार प्रा० पट्टावली और उस बृहट्टिप्पणिका में कुछ विरोध भी नहीं रहता। इससे इन दोनों की प्रामाणिकता ही सिद्ध होती है । प्रन्थ की भाषा
प्रस्तुत षट्खण्डागम की भाषा शौरसेनी है । प्राचीन समय में मथुरा के आस-पास के प्रदेश को शूरसेन कहा जाता था। इस प्रदेश की भाषा होने के कारण उसे शौरसेनी कहा गया है। व्याकरण में उसके जिन लक्षणों का निर्देश किया गया है वे सब प्रस्तुत षट्खण्डागम और प्रवचनसार आदि अन्य दि० ग्रन्थों की भाषा में नहीं पाये जाते, इसी से उसे जैन शौरसेनी कहा गया है। प्रवचनसार व तिलोयपण्णत्ती आदि प्राचीन दि० ग्रन्थों की प्रायः यही भाषा रही है। उसका शुद्ध रूप संस्कृत नाटकों में पात्र विशेष के द्वारा बोली जाने वाली प्राकृत में कहीं-कहीं देखा जाता है।
षट्खण्डागम के मूल सूत्रों की भाषा में जो शौरसेनी के विशेष लक्षण दृष्टिगोचर होते हैं उन्हें कुछ सीमा तक यहाँ उदाहरणपूर्वक स्पष्ट किया जाता है
१. शौरसेनी में सर्वत्र श, ष और स इन तीनों के स्थान में एक स का ही उपयोग हुआ है।
षट्खण्डागम में भी सर्वत्र उन तीनों वर्गों के स्थान में एक मात्र स ही पाया जाता है, श और ष वहाँ कहीं भी दृष्टिगोचर नहीं होते ।
२. शौरसेनी में प्रथमा विभक्ति के एक वचन के अन्त में 'ओ' होता है, जो षट्खण्डागम में प्रायः सर्वत्र देखा जाता है । जैसे--
जो सो बंधसामित्तविचओ णाम तस्स इमो णिदेसो (सूत्र ३-१)' । यहाँ जो सो आदि सभी पद प्रथमान्त व एकवचन में उपयुक्त हैं और उनके अन्त में 'ओ' का उपयोग हुआ है।
३. शौरसेनी में शब्द के मध्यगत त के स्थान में द, थ के स्थान में ध (प्रा० शब्दानुशासन ३।२।१) और क्वचित् भ के स्थान में ह होता है । ष० ख० में इनके उदाहरणत=द-वीतराग =वीदराग (१,४,१७३)।
__ संयतासंयत =संजदासंजद (१,१,१३)। थ=ध-पृथक्त्वेन-पुधत्तेण (२,२,१५)।
ग्रन्थकृति =गंधकदी (४,१,४६) । भ=ह-वेदनाभिभूत = वेयणाहिभूद (१,६-६,१२) ।
आभिनिबोधिक = आहिणिबोहिय (१,६-६,२१६)
१. यहाँ जो अंक दिये जा रहे हैं उनमें प्रथम अंक खण्ड का, दूसरा अंक अनुयोगद्वार का
और तीसरा अंक सूत्र का सूचक है। जहाँ चार अंक हैं वहां प्रथम अंक खण्ड का, दूसरा अंक अनुयोगद्वार का, तीसरा अंक अवान्तर अनुयोगद्वार का और चौथा अंक सूत्र का सूचक है । ६-१ व ६-२ आदि अंक प्रथम खण्ड की नौ चूलिकाओं में प्रथम-द्वितीयादि चूलिका के सूचक हैं।
षट्खण्डागम : पीठिका / २१
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