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इस सूत्र की व्याख्या करते हुए वीरसेन स्वामी ने धवला में प्रसंग-प्राप्त अनुभाग को जीवानुभाग व पुद्गलानुभाग आदि के भेद से छह प्रकार का निर्दिष्ट किया है। उनमें पुद्गलानुभाग के स्वरूप को दिखलाते हुए उन्होंने कहा है कि ज्वर, कोढ़ और क्षय आदि का विनाश करना व उन्हें उत्पन्न करना; इसका नाम पुद्गलानुभाग है। इसके निष्कर्षस्वरूप उन्होंने आगे यह कहा है कि योनिप्राभूत में निर्दिष्ट मंत्र-तंत्र शक्तियों को पुद्गलानुभाग ग्रहण करना चाहिए। ___ स्व० पं० जुगलकिशोरजी मुख्तार ने इस ग्रन्थ का परिचय कराते हुए लिखा है कि ८०० श्लोक-प्रमाण यह ग्रन्थ प्राकृत गाथाबद्ध है। विषय उसका मंत्र-तंत्रवाद है। वि० संवत् १५५६ में लिखी गयी बहट्टिप्पणिका नाम की ग्रन्थसूची के अनुसार, वह वीरनिर्वाण से ६०० वर्ष के पश्चात् धरसेन के द्वारा रचा गया है । इस ग्रन्थ की एक प्रति भाण्डारकर रिसर्च इंस्टीट्यूट, पूना में है, जिसे देखकर पं० बेचरदासजी ने जो नोट्स लिये थे उन्हीं के आधार से मुख्तार सा० द्वारा वह परिचय कराया गया है । इस प्रति में ग्रन्थ का नाम तो योनिप्राभत ही है, पर कता का नाम पण्हसवण मुनि देखा जाता है। उक्त पण्हसवण मनि ने उसे कष्माण्डिनी महादेवी से प्राप्त किया था और अपने शिष्य पष्पदन्त व भतबलि के लिए लिखा था।
इन दो नामों के निर्देश से उसके धरसेनाचार्य के द्वारा रचे जाने की सम्भावना अधिक है। प्रति में जो कर्ता का नाम पण्हसवण दिखलाया गया है वह वस्तुतः नाम नहीं है। 'पण्हसवण'' (प्रज्ञाश्रवण) उन मुनियों को कहा जाता है जो औत्पत्तिकी आदि चार प्रकार की प्रज्ञा के धारक होते हैं । अत: 'पण्हसवण' यह धरसेनाचार्य का बोधक हो सकता है।
पीछे ग्रन्थकर्ता के प्रसंग में यह कहा ही जा चुका है कि जब पुष्पदन्त और भूतबलि धरसेन भट्टारक के पास पहुँचे थे तब उन्होंने परीक्षणार्थ उन दोनों के लिए हीन-अधिक अक्षरों वाली दो विद्याएँ दी थीं व उन्हें विधिपूर्वक सिद्ध करने के लिए कहा था। तदनुसार उन विद्याओं के सिद्ध करने पर जब उनके सामने विकृत रूप में दो देवियाँ उपस्थित हुईं तब उन दोनों ने अपने-अपने अशुद्ध मंत्र को शुद्ध करके पुनः जपा था।
___ इस घटना से यह स्पष्ट है कि धरसेन भट्टारक तथा पुष्पदन्त और भूलबलि तीनों ही मंत्र-तंत्र के पारंगत थे। और जैसा कि धवला में कहा गया है, वह योनिप्राभृत ग्रंथ मंत्र-तंत्र का ही प्ररूपक रहा है । इसके अतिरिक्त जैसा कि ऊपर सूचित किया गया है, यह ग्रंथ पण्हसवण मुनिको कुष्माण्डिनी देवी से प्राप्त हुआ था और उन्होंने उसे अपने शिष्य पुष्पदन्त और भूतबलि के लिए लिखा था, ये दोनों धरसेनाचार्य के शिष्य रहे हैं, यह स्पष्ट ही है । अतः पण्हसवण मुनि धरसेनाचार्य ही हो सकते हैं और सम्भवतः उन्हीं के द्वारा वह लिखा गया है।
पूर्वोल्लिखित नन्दिसंघ की प्राकृत पट्टावली के अनुसार, आ० धरसेन का काल वीरनिर्वाण से ६२+१००+१८३+१२३+७+२८+२१ =६१४ वर्ष के पश्चात् पड़ता
१. धवला पु० १३, पृ० ३४६ २. देखिए अनेकान्त वर्ष २, कि०६ (१-७-१९३६), पृ० ४८५-६० पर 'प्रकाशित
योनिप्राभत और जगत्सुन्दरी योगमाला' शीर्षक लेख ३. 'पण्हसवण' (प्रज्ञाश्रवण) के स्वरूप के लिए देखिए धवला पु० ६, पृ० ८१-८४ ।
२० / षट्खण्डागम-परिशीलन
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