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________________ को आन्ध्र देश की वेण्या नदी के तट से धरसेनाचार्य के पास भेजा हो । उपर्युक्त शिलालेख के आधार पर यह सम्भावना ही की जा सकती है, वस्तु-स्थिति वैसी रही या नहीं रही, यह अन्वेषणीय है । उपर्युक्त पट्टावली में अर्हद्बली, माघनन्दी, धरसेन, पुष्पदन्त और भूलबलि को एक अंग के धारक कहा गया है ।' इस प्रकार पट्टावली के अनुसार अर्हद्बली को एक अंग के ज्ञाता होने पर भी तिलोयपण्णत्ती आदि ग्रन्थान्तरों में प्ररूपित उस आचार्य परम्परा में जो स्थान नहीं मिला है उसका कारण सम्भवतः उनके द्वारा प्रवर्तित वह संघभेद ही हो सकता है । मुनिजनों के विविध संघों में विभक्त हो जाने पर जो जिस संघ का था वह अपने ही संघ के मुनिजनों को महत्त्व देकर अन्यों की उपेक्षा कर सकता है । जैसे - हरिवंशपुराण के कर्ता आचार्य जिनसेन ने ग्रन्थ को प्रारम्भ करते हुए समन्तभद्र, सिद्धसेन, देवनन्दी (पूज्यपाद), रविषेण, वीरसेन गुरु और पार्श्वभ्युदय के कर्ता जिनसेनाचार्य आदि कितने ही आचार्यों का स्मरण किया है, किन्तु उन्होंने कुन्दकुन्द जैसे लब्धप्रतिष्ठ आचार्य का वहाँ स्मरण नहीं किया । इसी प्रकार महापुराण के कर्ता जिनसेनाचार्य ने भी उसके प्रारम्भ में सिद्धसेन, समन्तभद्र, श्रीदत्त, प्रभाचन्द्र, शिवकोटि, जटाचार्य, देवनन्दी और भट्टाकलंक आदि का स्मरण करके भी उन कुन्दकुन्दाचार्य का स्मरण नहीं किया । आचार्य वीरसेन स्वामी ने अपनी धवला टीका में ग्रन्थान्तरों से सूत्र व गाथा आदि को उद्धृत करते हुए कहीं-कहीं गुणधर भट्टारक' गृद्धपिच्छाचार्य' समन्तभद्र स्वामी, यतिवृषभ, पूज्य - पाद" और प्रभाचन्द्र भट्टारक आदि का उल्लेख किया है, किन्तु कुन्दकुन्दाचार्य विरचित पंचास्तिकाय और प्रवचनसार की कुछ गाथाओं को धवला में उद्धृत करते हुए भी आ० कुन्दकुन्द का कहीं उल्लेख नहीं किया । इसका कारण संघभेद या विचारभेद ही हो सकता है । धरसेनाचार्य व योनिप्राभृत षट्खण्डागम के अन्तर्गत प्रकृति अनुयोगद्वार में केवलज्ञानावरणीय के प्रसंग में कहा गया है कि स्वयं उत्पन्न ज्ञान-दर्शी भगवान् केवली देव, असुर व मानुष लोक की आगति एवं गति आदि, सब जीवों और सब भावों को जानते हैं । " १. अहिबल्ली माघणंदि य धरसेणं पुफ्फयंत भूहबली । asarसी इगवीसं उगणीसं तीस वीस वास पुणो ।। १६ ।। इगसय अठारवासे इयंगधारी य मुणिवरा जादा । १७ पू० २. ह० पु० १, २६-४० ३. म० पु० १, ४. धवला पु० १२, पृ० २३२ ५. वही, पु० ४, पृ० ३१६ ६. वही, पु० ६, पृ० १६७ ७. वही, पु० १. पृ० ३०२ व पु० १२, पृ० १३२ ८. वही, पु० ६, पृ० १६५-१६७ ६. वही, पु० ६, पृ० १६६ १०. सूत्र ५.५, ८२ ( पु० १३ पृ० ३४६ ) Jain Education International षट्खण्डागम: पीठिका / १६ --- For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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