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________________ प्राभृतः पाहुडो (४,१,४५ व ६३ तथा ५,५,४६) । विभंग विहंग (५,६,१६)। विभाषा=विहासा (१,६-१,२)। ४. शौरसेनी में पूर्वकालिक क्रिया में क्त्वा के स्थान में ता और दृण होता है। (प्रा. श० ३।२।१०)। ष० ख० में इनके उदाहरण हैंत्ता-समुत्पादयित्वाः - समुप्पाद इत्ता (४,२,४,१०६)। उपशामयित्वा-उपसाम इत्ता (४,२,४,१०२)। अनुपालयित्वा- अणुपाल इत्ता (४,२,४,७१ व १०२ तथा ५,६,४६७)। विहृत्य ---विहरित्ता (४,२,४,१०७) । दूण-कृत्वा-कादूण (४,२,४,७० व १०१ तथा ४,२,५,११)। भूत्वा होदूण (१,६-६,२१६, २२०, २२६, २३३, २४० व २४३ आदि)। संसृत्य =संसरिदूण (४,२,४,७१ व १०२) । ५. शौरसेनी में क्वचित् र के स्थान में ल भी देखा जाता है । उसके उदाहरणर=ल-उदार ओराल (५,६,२३७) । औदारिक= ओरालिय (५,६,२३७)। हारिद्र-हालिद्द (१,६-१,३७)। रूक्ष= लुक्ख (१,६-१,४० व ५,५,३२-३६) । ६. जैन शौरसेनी कही जाने वाली शौरसेनी के कुछ ऐसे लक्षण हैं जो प्रस्तुत षट्खण्डागम में पाये जाते हैं । जैसे--- ऋ=अ-मृदुमउव (१,६-१,४०) (प्रा० श० १,२,७३) । अन्तकृत= अंतयड (१,६-६,२१६ व २२०, २२६, २३३, २४३) । कृत=कद (५,५,६८) दृष्ट्वा = दळूण (१,६-६,२२,४०)। ऋ= इ-ऋद्वि = इड्ढि (५,५,६८)। प्रा० १।२।७५ ऋद्धिप्राप्त -- इड्ढिपत्त (१,१,५६)। मिथ्यादृष्टि-मिच्छाइट्ठी (१,१,६ व ११) । सम्यग्दृष्टि= सम्माइट्ठी (१,१,१० व १२) । मृग =मिय (५,५,१५७)। ऋ=उ—पृथिवी-पुढवी (१,१,३६ व ४०) । प्रा० १।२।८० ऋजुमति = उजुमदि (५,५,७७-७८)। ऋजुक = उज्जुग (५,५,८६)। वृद्धिः= वुड्ढी (५,५,६६) । अतिवृष्टि-अनावृष्टि=अइबुट्टि-अणावुट्ठि (५,५,७६ व ८८)। ऋ=ओ-मृषा= मोस (१,१,४६-५३ व ५५) । ११२।८५ ऋ=रि-ऋषेः---रिसिस्स (४,१,४४) । १-२.८६ ऋण रिण (४,१,६६ धवला)। ७. त्रिविक्रम प्रा० शा० सूत्र १,३,८ के अनुसार क, ग, च, ज, त, द, प, य और व २२ / षट्खण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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