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के प्रसंग में श्रोत्रेन्द्रिय के विषय का विचार करते हुए धवला में 'उक्तं च' के निर्देश पूर्वक उद्धृत है । विशेषावश्यक भाष्य में भी यह उपलब्ध होती है।'
दोनों ग्रन्थों में आगे मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान की जो प्ररूपणा है वह कुछ भिन्न पद्धति से की गई है, अतः उसमें विशेष समानता नहीं है ।
विशेषता यह है कि षट्खण्डागम में जहाँ मन:पर्ययज्ञान के स्वामी प्रमत्तसंयत से लेकर क्षीणकषाय वीतराग छद्मस्थ तक बतलाये गये हैं वहाँ नन्दिसूत्र में उसके स्वामी अप्रमत्तसंयत सम्यग्दृष्टि पर्याप्त संख्यातवर्षायुष्क कर्मभूमिज गर्भोपक्रान्तिक ऋद्धिप्राप्त मनुष्य बतलाये गये हैं। १२. षट्खण्डागम (धवला) और दि० प्राकृत पंचसंग्रह
__'पंचसंग्रह' नाम से प्रसिद्ध अनेक ग्रन्थ हैं, जो संस्कृत और प्राकृत दोनों ही भाषाओं में रचे गये हैं। उनमें यहाँ 'भारतीय ज्ञानपीठ' से प्रकाशित दि० सम्प्रदाय मान्य पंचसंग्रह अभिप्रेत है । यह किसके द्वारा रचा गया है या संकलित किया गया है, यह अभी तक अज्ञात ही बना हुआ है । पर इसकी रचना-पद्धति और विषय-विवेचन की प्रक्रिया को देखते हुए यह प्राचीन ग्रन्थ ही प्रतीत होता है । इसमें ये पांच प्रकरण हैं—१. जीवसमास, २. प्रकृतिसमुत्कीर्तन, ३. कर्मस्तव, ४. शतक और ५. सत्तरी । इनकी गाथा-संख्या क्रम से इस प्रकार है२०६+१२+७७-+-५२२ F५०७ -- १३२४ । इनमें मूल गाथाओं के साथ उनमें से बहुतों के स्पष्टीकरण में बहुत-सी भाष्य-गाथाएँ भी रची गई हैं, जिनकी संख्या लगभग ८६४ है । प्रकृतिसमुत्कीर्तन नामक दूसरे प्रकरण में कुछ गद्यभाग भी है । इन पाँच प्रकरणों में क्रम से कर्म के बन्धक (जीव), बध्यमान (कर्म), बन्धस्वामित्व, बन्ध के कारण और बन्ध के भेद; इनकी प्ररूपणा की गई है। प्रसंग के अनुसार वहाँ अन्य विषयों का-जैसे उदय व सत्त्व आदि का-भी निरूपण किया गया है ।
मूल षट्खण्डागम से प्रभावित
प्रस्तुत पंचसंग्रह का दूसरा प्रकरण प्रकृतिसमुत्कीर्तन है। उसमें केवल दस ही गाथाएँ हैं, शेष गद्यभाग है। गाथाओं में प्रथम गाथा के द्वारा मंगलस्वरूप वीर जिनेन्द्र को नमस्कार करते हुए आगे दूसरी व तीसरी गाथा में क्रम से मूल प्रकृतियों के नामोल्लेखपूर्वक उनके विषय में पृथक्-पृथक् दृष्टान्त दिये गये हैं । चौथी गाथा में उन मूलप्रकृतियों के अन्तर्गत उत्तरप्रकृतियों की गाथासंख्या का क्रम से निर्देश है।
आगे गद्यभाग में जो यथाक्रम से मलप्रकृतियों का उल्लेख किया गया है वह मूल षट्खण्डागम के प्रथम खण्डस्वरूप जीवस्थान की दूसरी चूलिका से प्रभावित है। इतना ही नहीं, इन दोनों ग्रन्थगत उस प्रकरण का नाम समान रूप में 'प्रकृतिसमुत्कीर्तन' ही उपलब्ध होता है । पंचसंग्रह के इस प्रकरण में जो गद्यभाग है उसमें अधिकांश पूर्वोक्त जीवस्थान की
१. धवला पु० १३, पृ० २२४ व विशेषा० भाष्य ३५१ २. १० ख० सूत्र ५,५, ६०-७८ (पु० १३) और नन्दिसूत्र ३०-४२ ३. १० ख० सूत्र १,१, १२१ (पु० १) व नन्दिसूत्र ३३, विशेषकर सूत्र ३० [६]
२८४ | षट्खण्डागम-परिशीलन
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