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________________ प्रकृतिसमुत्कीर्तन चूलिका से प्राय: जैसा का तैसा ले लिया गया है। उदाहरण स्वरूप दोनों की शब्दशः समानता इस प्रकार देखी जा सकती है "दंसणावरणीयस्स कम्मस्स णव पयडीओ। णिद्दाणिद्दा पयलापयला थीणगिद्धी णिद्दा पयला य चक्खुदंसणावरणीयं अचक्खुदंसणावरणीयं ओहिदंसणावरणीयं केवलदसणावरणीयं चेदि ।" -ष०ख० सूत्र १,१,१५-१६ (पु० ६) "जं दंसणावरणीयं कम्मं तं णवविहं-णिद्दाणिद्दा पयला-पयला थीणगिद्धी णिद्दा य पयला य। चक्खु दंसणावरणीयं अचक्खुदंसावरणीयं ओहिदसणावरणीयं केवलदसणावरणीयं चेदि ।" -पंचसंग्रह, पृ० ४५ जीवसमास व जीवस्थान पंचसंग्रह का प्रथम प्रकरण 'जीवसमास' है। उधर षट्खण्डागम का प्रथम खण्ड 'जीवस्थान' है। जीवस्थान का अर्थ है जीवों के स्थानों--उनके ऐकेन्द्रियादि भेद-प्रभेदों व उनकी जातियों का वर्णन करनेवाला प्रकरण । 'जीवसमास' का भी अभिप्राय वही है । पंचसंग्रहकार ने उसे स्पष्ट करते हुए स्वयं कहा है कि जिन विशेष धर्मों के आश्रय से अनेक जीवों और उनकी विविध जातियों का परिज्ञान हुआ करता है उन सबके संग्राहक प्रकरण का नाम जीवसमास है। आगे संग्रहकर्ता ने उसका दूसरा नाम स्वयं 'जीवस्थान' भी निर्दिष्ट किया है।' उन सब जीवस्थानों का वर्णन जिस प्रकार षट्खण्डागम के प्रथम खण्ड जीवस्थान में सत्प्ररूपणादि आठ अनुयोगद्वारों के आश्रय से विस्तारपूर्वक किया गया है उसी प्रकार उनका वर्णन इस पंचसंग्रह के 'जीवसमास' प्रकरण में भी विस्तार से हुआ है। षट्खण्डागम की टीका धवला में जीवस्थान खण्ड के अन्तर्गत विवक्षित विषयों को स्पष्ट करते हुए प्रसंगानुसार जिन पचासों प्राचीन गाथाओं को उद्धृत किया है उनमें अधिकांश उसी रूप में व उसी क्रम से पंचसंग्रह के इस जीवसमास नामक अधिकार में उपलब्ध होती. पंचसंग्रह गाथा (जीवसमास) क्रम संख्या गाथांश धवला पृ० २०० ३७३ ३५६ २७१ ३५१ अट्ठविहकम्मविजुदा अणुलोभं वेदंतो अत्थादो अत्यंतर अस्थि अणंता जीवा अप्प-परोभयबाधण १३२ १२२ ८५ १६६ १. जीवाणं वाणवण्णणादो जीवट्ठाणमिदि गोण्णपदं। -धवला पु० १, पृ० ७६ २. जेहि अणेया जीवा णज्जंते बहुविहा वि तज्जादी। ते पुण संगहिदत्था जीवसमासे त्ति विण्णेया ।। जीवट्ठाणवियप्पा चोद्दस इगिवीस तीस बत्तीसा। छत्तीस अट्टतीसाऽडयाल चउवण्ण सयवण्णा॥ -पंचसं० १,३२-३३ षट्खण्डागम की अन्य ग्रन्थों से तुलना । २८५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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