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नन्दिसूत्र में द्रव्य क्षेत्रादि से सम्बन्धित अवधिज्ञान के विषय की प्ररूपणा इस प्रकार से नहीं की गई है । वहाँ व्यन्तर देवों आदि के आश्रय से भी अवधिज्ञान के उस विषय को नहीं प्रकट किया गया है ।
नन्दसूत्र में वर्धमान अवधिज्ञान के इस प्रसंग को समाप्त करते हुए आगे हीयमान, प्रतिपाति और अप्रतिपाति अवधिज्ञान के स्वरूप को क्रम से दिखलाकर वे द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा कितने विषय को जानते हैं, इसका विचार किया गया है ।"
षट्खण्डागम मूल में अवधिज्ञान के इन भेदों के स्वरूप आदि का कुछ विचार नहीं किया गया जबकि धवला में उनके स्वरूपादि विषयों का उल्लेख है ।"
८. ष० ख० ( धवला) में पूर्वोक्त एक क्षेत्र और अनेक क्षेत्र अवधिज्ञान के भेदों का स्वरूप दिखलाते हुए उस प्रसंग में यह कहा गया है कि तीर्थंकर, देव और नारकियों का अवधिज्ञान अनेक क्षेत्र ही होता है, क्योंकि वे शरीर के सभी अवयवों के द्वारा अपने उस अवधिज्ञान के विषयभूत अर्थ को ग्रहण किया करते हैं। आगे धवला में 'वृत्तं च' ऐसा संकेत करते हुए यह गाथा उद्धृत की गई है—
रइय-देव-तित्ययरोहि खेसस्स बाहिरं एवं ।
जाणंति सव्वदो खलु सेसा देसेण जाणंति ॥ - पु० १३, पृ० २६५ दिसूत्र में कुछ थोड़े से परिवर्तन के साथ इसी प्रकार की एक गाथा इस प्रकार उपलब्ध
होती है
नेरइय-देव- तित्थंकरा य ओहिस्सम्बा हिरा होंति । पासंति सम्वओ खलु सेसा देसेण पाति ॥
अन्य ज्ञातव्य
नन्दिसूत्र में आगे अवग्रहादि के स्वरूप व उनके विषय को प्रकट करते हुए जो छह गाथाएँ (सूत्र ६०, गा० ७२-७७) उपलब्ध होती हैं उनमें "पुट्ठ सुणेइ सर्द" इत्यादि गाथा थोड़े से शब्दव्यत्यय के साथ 'आगमस्तावत्' इस सूचना के साथ सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थवार्तिक में भी उद्धृत की गई है ।'
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यह गाथा नन्दिसूत्र व सर्वार्थसिद्धि के पूर्व और कहाँ उपलब्ध होती है, यह अन्वेषणीय
है ।
ऊपर निर्दिष्ट इन छह गाथाओं में दूसरी "भाषा समसेढीओ" आदि गाथा व्यंजनावग्रह
-- नन्दिसूत्र २७, गाथा ५४
१. नन्दिसूत्र २५ - २८
२. धवला पु० १३, पृ० २६३-६६
३. इस प्रसंग से सम्बद्ध ष० ख० के ये दो सूत्र द्रष्टव्य हैं - खेत्तदो ताव अणेयसंठाणसंठिदा । सिखिच्छ - कलस - संख-सोत्थिय-णंदावत्तादीणि संठाणाणि पादव्वाणि भवंति ।
— सूत्र ५,५, ५७-५८ ( पु० १३)
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४. स० सि० १ १६; त० वा० १,१६,३
५. यह गाथा० दि० पंचसंग्रह (१-६८) में भी उपलब्ध होती है ।
घट्खण्डागम की अन्य ग्रन्थों से तुलना / २८३
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