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________________ यह स्पष्ट कर दिया है कि तृतीय समयवर्ती आहारक और तृतीय समयवर्ती तद्भवस्थ हुए सूक्ष्म निगोद जीव की जघन्य अवगाहना के प्रमाण अवधिज्ञान का जघन्य क्षेत्र है ६. आगे षट्खण्डागम में अवधि के विषयभूत क्षेत्र से सम्बद्ध काल की अथवा काल से सम्बद्ध क्षेत्र की प्ररूपणा में जो चार गाथाएँ आयी हैं वे नन्दिसूत्र में भी समान रूप में उसी क्रम से उपलब्ध होती हैं ।' विशेष इतना है कि उन चार गाथाओं में जो दूसरी गाथा है उसमें शब्दसाम्य के होने पर भी शब्दक्रम के विन्यास में भेद होने से अभिप्राय में भेद हो गया है । वह गाथा इस प्रकार है आवलिययुधत्तं घणहत्थो तह गाउअं मुहुत्तंतो । जोयण भिण्णमुहत्तं दिवसंतो पण्णवीसं तु ॥ -- ष० ख० पु० १३, पृ० ३०६, गा० ५ हत्थम्मि मुहुत्तंतो दिवसंतो गाउयम्मि बोद्धव्वो । जोयण दिवसपुहुतं पक्खंतो पण्णवीसाओ ॥ - नन्दिसूत्र, गाथा ४८ यहाँ ष० ख० में जहाँ घनहस्त प्रमाण क्षेत्र के साथ काल आवलिपृथक्त्व, घनगव्यूति के साथ अन्तर्मुहूर्त, घनयोजन के साथ भिन्नमुहूर्त और पच्चीस योजन के साथ काल दिवसान्त--- कुछ कम एक दिन - निर्दिष्ट किया गया है वहाँ नन्दिसूत्र में हस्तप्रमाण क्षेत्र के साथ काल अन्तर्मुहूर्त, गव्यूति के साथ दिवसान्त, योजन के साथ दिवसपृथक्त्व और पच्चीस योजन के साथ काल पक्षान्त कहा गया है । इस विषय में परस्पर मतभेद ही रहा है या प्रतियों में कुछ पाठ-भेद हो जाने के कारण वैसा हुआ है, कुछ कहा नहीं जा सकता । आगे की दो गाथाओं में भरतादि प्रमाण क्षेत्र के साथ जिस अर्धमास आदिरूप कालक्रम का निर्देश है वह दोनों ग्रन्थों में सर्वथा समान है । ७. ठीक इसके अनन्तर दोनों ग्रन्थों में यथायोग्य द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव सम्बन्धी वृद्धि की सूचक जो “कालो चदुण्ण वुड्ढी" गाथा उपलब्ध होती है वह शब्द और अर्थ दोनों की अपेक्षा प्रायः समान है। षट्खण्डागम में आगे एक गाथा के द्वारा यह बतलाया गया है कि जहाँ अवधिज्ञान का विषयभूत द्रव्य तैजस शरीर, कार्मणशरीर, तैजसवर्गणा और भाषावर्गणा होता है वहाँ अवधिज्ञान का क्षेत्र असंख्यात द्वीप समुद्र और काल असंख्यात वर्षप्रमाण होता है। तत्पश्चात् वहाँ कुछ गाथाओं में व्यन्तरादि देवों, तिर्यंचों, नारकियों और मनुष्यों में यथासम्भव अवधिज्ञान के विषय को दिखलाया गया है । १. ष० ख० पु० १३, पृ० ३०४-८ में गा० ४-७ तथा नन्दिसूत्र २४, गा० ४७-५० । मूल में गाथाएँ महाबन्ध (१, पृ० २१ ) में भी रही हैं । २. यह गाथा महाबन्ध में उपलब्ध होती है । भा० १, पृ० २१ ३. ष० ख० पु० १३, पृ० ३०६, गा०८ और नन्दिसूत्र २४, गा० ५१ ४. ष० ख० पु० १३, पृ० ३१०-२७, गाथा ६-१७ २८२ / षट्खण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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