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णामः। ग्रन्थपरिकर्मका' यह सन्दर्भ असम्बद्ध प्रतीत हो रहा है । हो सकता है कि लिपि के दोष से 'परिमाणः' के स्थान में 'परिणामः' और 'कर्ता' के स्थान में 'की' हो गया हो। वैसी स्थिति में परिमाणः' का सम्बन्ध तीसरे चरण में प्रयुक्त 'ग्रन्थ' के साथ तथा 'कर्ता' का सम्बन्ध 'सोऽपि' के साथ बैठाया जा सकता है। फिर भी अन्तिम क्रियापद की अपेक्षा बनी ही रहती है। 'अपि' शब्द भी कुछ अटपटा-सा दिखता है। यद्यपि पादपूर्ति के लिए ऐसे कुछ शब्दों का उपयोग किया भी जाता है, पर ऐसे प्रसंग में उसका प्रयोग किसी अन्य की भी सूचना करता है। इसके अतिरिक्त 'परिकर्म' के साथ टीका या व्याख्या जैसे किसी शब्द का उपयोग नहीं किया गया है, जिसकी अपेक्षा अधिक थी।
(२) बप्पदेव गुरु के द्वारा लिखी जानेवाली पुरातन (?) व्याख्या के प्रसंग में जिन छह (१७१-७६) पद्यों का उपयोग हुआ है उनमें से प्रथम (१७१) पद्य में प्रयुक्त 'अवाप्तवान्' क्रियापद के कर्ता के रूप में सम्बन्ध किससे अपेक्षित रहा है ? तृतीयान्त 'शुभ-विनन्दिमुनिभ्याम्' से सूचित शुभनन्दी और रविनन्दी के साथ तो उसका सम्बन्ध जोड़ना असंगत रहता है (१७२)। इसके अतिरिक्त इन्हीं दोनों के लिए आगे (१७३) 'तयोश्च' इस सर्वनाम पद का भी उपयोग किया गया है। यदि 'अवाप्तवान्' के स्थान में 'अवाप्तः' रहा होता तो उपर्युक्त तृतीयान्त पद से उसका सम्बन्ध घटित हो सकता था। आगे का पद्य (१७४) तो पूरा ही असम्बद्ध दिखता है। छह खण्डों मे महाबन्ध को अलग करके व्याख्याप्रज्ञप्ति को छठे खण्ड के रूप में यदि शेष पाँच खण्डों में जोड़ने का अभिप्राय रहा है तो वह 'संक्षिप्य' पद से तो स्पष्ट नहीं होता। इसके अतिरिक्त इसके पूर्व में जो 'तत' है वह स्पष्टतया अशुद्ध है ! पर उसके स्थान में क्या पाठ रहा है, इसकी कल्पना करना भी अशक्य दिख रहा है।
(३) शामकुण्ड के द्वारा दोनों सिद्धान्तों पर बारह हजार ग्रन्थप्रमाण 'पद्धति' के लिखे जाने की सुचना की गई है (१६३), पर उस में षटखण्डागम पर वह कितने प्रमाण में लिखी गई और कषायप्राभृत पर कितने प्रमाण में, यह स्पष्ट नहीं है।
इसी प्रकार तुम्बुलू राचार्य द्वारा दोनों सिद्धान्तों पर चौरासी हजार ग्रन्थप्रमाण 'व्याख्या' के लिखे जाने की सूचना है, पर वह उन दोनों में से किस पर कितने प्रमाण में लिखी गई, यह स्पष्ट नहीं है (१६५-६६)।
(४) श्लोक १७८ में वीरसेन गुरु के द्वारा 'निबन्धन' आदि उपरितम आठ अधिकारों के लिखे जाने की सूचना है, और फिर आगे श्लोक १८० में 'बन्धन' आदि उपरितम अठारह अधिकारों के लिखे जाने की सूचना की गई है। इससे क्या यह समझा जाय कि आ० वीरसेन ने निबन्धन आदि आठ अधिकारों को चित्रकूटपुर में रहते हुए लिखा और आगे के दस अधिकारों को उन्होंने वाटग्राम में आकर लिखा? पर यह अभिप्राय निकालना भी कठिन दिखता है, क्योंकि आगे (१८०) बन्धन आदि उपरितम अठारह अधिकारों का उल्लेख किया गया है, जबकि उनमें 'बन्धन' नाम का कोई अधिकार रहा ही नहीं है। 'बन्धन' अनुयोगद्वार तो मूल षट्खण्डागम में वर्गणा खण्ड के अन्तर्गत अन्तिम रहा है। ___'व्याख्याप्रज्ञप्तिमवाप्य पूर्वषट्खण्डतस्ततस्तस्मिन' (१८० पू०) का अभिप्राय समझना भी कठिन प्रतीत हो रहा है। क्या बप्पदेव के द्वारा महाबन्ध को अलग करके व छठे खण्डस्वरूप व्याख्याप्रज्ञप्ति को जोड़कर बनाये गये पूर्व के छह खण्डों में से, वीरसेनाचार्य द्वारा व्याख्याप्रज्ञप्ति को अलग करके छठे खण्डस्वरूप 'सत्कर्म' को उसमें जोड़ा गया है ? पर 'अवाप्य' ३४६ / षट्खण्डागम-परिशीलन
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