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________________ में वाचना निषिद्ध है, क्योंकि उस समय क्षेत्रशुद्धि करने का उपाय नहीं रहता। __अवधिज्ञानी व मनःपर्ययज्ञानी, समस्त अंगश्रुत के धारक, आकाशस्थित चारण और मेरु व कुलाचल के मध्य में स्थित चारण; इनके लिए अपररात्रिवाचना निषिद्ध नहीं है, क्योंकि ये क्षेत्रशुद्धि से निरपेक्ष होते हैं। ____ जो राग, द्वेष, अहंकार व आर्त-रौद्रध्यान से रहित होकर पांच महाव्रतों से सहित, तीन गुप्तियों से सुरक्षित तथा ज्ञान, दर्शन व चारित्र आदि आचार से वृद्धिंगत होता है उस भिक्षु के भावशुद्धि हुआ करती है। इस प्रसंग में धवलाकार ने 'अत्रोपयोगिश्लोकाः' इस सूचना के साथ २५ श्लोकों को उद्धृत किया है। इन श्लोकों में कब स्वाध्याय नहीं करना चाहिए, क्षेत्रशुद्धि कहाँ-किस प्रकार करना चाहिए, अष्टमी व पौर्णमासी आदि के दिन अध्ययन करने से गुरु-शिष्य को क्या हानि उठानी पड़ती है, किस परिस्थिति में स्वाध्याय समाप्त करना चाहिए, तथा वाचना समाप्त अथवा प्रारम्भ करते समय कब कितनी पादछाया रहना चाहिए; इत्यादि का विशद विवेचन है (धवला पु० ६, पृ० २५३-५६)। - मलाचार में भी आठ प्रकार के ज्ञानाचार के प्रसंग में कालाचार की प्ररूपणा करते हुए स्वाध्याय कब करना चाहिए, स्वाध्याय को प्रारम्भ व समाप्त करते समय पूर्वाह्न व अपराह्न में कितनी जंघच्छाया रहना चाहिए, आषाढ़ व पौष मास में किस प्रकार से उस छाया में हानिवद्धि होती है, स्वाध्याय के समय दिग्विभाग की शुद्धि के लिए पूर्वाह्न, अपराह्न व प्रदोषकाल में कितनी गाथाओं का परिमाण रहता है, स्वाध्याय के समय दिशादाह आदि किन दोषों को छोड़ना चाहिए तथा द्रव्य, क्षेत्र व भाव की शुद्धि किस प्रकार की जाती है, इत्यादि को स्पष्ट किया गया है । अन्त में वहाँ सूत्र के लक्षण का निर्देश कर अस्वाध्याय काल में संयत व स्त्रीवर्ग को गणधरादि कथित सूत्र के पढ़ने का निषेध किया गया है, सूत्र को छोड़ आराधनानियुक्ति आदि अन्य ग्रन्थों के अस्वाध्यायकाल में भी पढ़ने को उचित ठहराया गया है। इस प्रकार उपर्युक्त स्थित-जितादि नौ अर्थाधिकारों का विवेचन समाप्त कर धवला में यह सूचना कर दी गयी है कि ऊपर आगम के जिन नौ अर्थाधिकारों का प्ररूपण है उनके अर्थ को प्रसंगप्राप्त इस 'कृति' में योजित कर लेना चाहिए (पु० ६, पृ० २६१-६२) । गणनकृति सूत्रकार ने गणनकृति अनेक प्रकार की बतलाते हुए एक (१) को नोकृति, दो (२) को कृति व नोकृति के रूप में अवक्तव्य और तीन को आदि लेकर (३,४,५ आदि) संख्यात, असंख्यात व अनन्त को कृति कहा है तथा इस सबको गणनकृति कहा है (सूत्र ६६)। इसकी व्याख्या में, धवला में कहा गया है कि 'एक' यह नोकृति है। इसे 'नोकृति' कहने का कारण यह है कि जिस राशि का वर्ग करने पर यह वृद्धि को प्राप्त होती है तथा अपने वर्ग में से वर्गमूल कम करके वर्ग करने पर वृद्धि को प्राप्त होती है उसे 'कृति' कहा जाता है। पर एक का वर्ग करने पर उसमें वृद्धि नहीं होती तथा मूल के कम कर देने पर वह निर्मूल नष्ट हो जाती है, इसीलिए सूत्र में उसे 'नोकृति' कहा गया है । इस 'एक' संख्या को १. मूलाचार गाथा ५७३-८२ ४७२ / षट्खण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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