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________________ तत्पश्चात् उन कृति-दवादि चौबीस बनुयोमारों में प्ररूपित विषय का संक्षेप में विधान कराया है। कतिविषयक प्ररूपणा आगे कृति के नामकृति, स्थापनाकृति, द्रष्याकृति, पमनकृति, ग्रन्यकृति, करपति और भावकृति इन सात भेदों में से आगमद्रव्यकृति के प्रसंग में सूत्रकार द्वारा उसके इन नौ गाधिकारों का निर्देश है-स्थित, जित, परिजित, वाचनोपगत, सूत्रसम, अर्थमब, अन्यसन, नावसम और घोषसम (सूत्र ५४) । __इन सब का स्वरूप स्पष्ट करते हुए धवलाकार ने काचवोपपत अर्थाधिकार के प्रसंग में वाचना के इन चार भेदों का निर्देश किया है नन्दा, भद्रा, जया और सौम्या। जिस व्याख्या में अन्य दर्शनों को पूर्वपक्ष में करके, उनका निराकरण करते हुए अपना पक्ष स्थापित किया जाता है उसका नाम नन्दा-वाचना है। युक्तियों द्वारा समाधान करके पूर्वापरविरोध का परि. हार करते हुए सिद्धान्त के अन्तर्गत समस्त विषयों की व्याख्या का नाम भद्रावाचवा है। पूर्वापर विरोध का परिहार न करके सिद्धान्तगत अर्थों का कथन करका जया-वाला कहलाती है। कहीं-कहीं पर स्खलित होते हुए जो व्याख्या की जाती है उसे सौभ्या-वाचमा कहते है (पु. ६, पृ० २५१-५२)। स्वाध्यायविधि इस प्रकार इन चार वाचनाओं का स्वरूप दिखलाकर धवला में आगे कहा गया है कि को तत्त्व का व्याख्यान करते हैं अथवा उसे सुनते हैं उनको द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की शुद्धिपूर्वक ही व्याख्यान करना व पढ़ना चाहिए। __ शरीर में ज्वर, कुक्षिरोग, शिरोरोग, दुःस्वप्न, रुधिर, मल, मूत्र, लेप, अतीसार, पीव आदि का न रहना द्रव्यशुद्धि है। जिस स्थान में व्याख्याता अवस्थित है उस स्थान से अट्ठाईस (७X४) हजार आयत चारों दिशाओं में मल, मूत्र, हड्डी, बाल, नाखून, चमड़ा आदि का न रहना; इसका नाम क्षेत्रशुद्धि है । स्वाध्याय के समय बिजली, इन्द्रधनुष, चन्द्र-सूर्य-ग्रहण, अकालवृष्टि, मेघगर्जन, मेघाच्छादित आकाश, दिशादाह, कुहरा, संन्यास, महोपवास, नन्दीश्वरजिनमहिमा इत्यादि के न होने पर कालशुद्धि होती है। __कालशुद्धि के प्रसंग में उसके विधान की प्ररूपणा करते हुए धवलाकार ने कहा है कि पश्चिमरात्रि के स्वाध्याय को समाप्त करके बाहर निकले व प्रासुक भूमिप्रदेश में कायोत्सर्ग से पूर्वाभिमुख स्थित होकर नौ गाथाओं के परिवर्तनकाल से पूर्वदिशा को शुद्ध करे। पश्चात् प्रदक्षिणक्रम से पलटकर इतने ही काल से दक्षिण, पश्चिम और उत्तर दिशा को शुद्ध करने पर छत्तीस (EX४) गाथाओं के उच्चारणकाल से अथवा एक सौ आठ उच्छ्वासकाल से कालशुद्धि पूर्ण होती है। अपराह्न में भी इसी प्रकार से कालशुद्धि करना चाहिए। विशेष इतना है कि इसमें काल का प्रमाण सात-सात गाथाएँ हैं। इस प्रकार सब गाथाओं का प्रमाण अट्ठाईस (७-४) अथवा चौरासी उच्छ्वास होता है। सूर्य के अस्तंगत होने के पूर्व क्षेत्रशुद्धि करके, उसके अस्तंगत हो जाने पर कालशुद्धि पूर्व के समान करना चाहिए। विशेष इतना है कि यहां काल बीस (५४४) गाथाओं के उच्चारण अथवा साठ उच्छ्वास मात्र रहता है। अपररात्रि पदमागम पर टीकाएं | 7 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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